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श्री संवेगरंगशाला
हे मुनिवरों ! तुम ज्ञान के भण्डार इस गुरू के वचन को कदापि उल्लंघन मत करना, परन्तु वचन द्वारा 'तहत्ति' बोलकर स्वीकार करे और उसका सम्यग् रूप पालन करना । क्योंकि जगत में निःकारण वत्सल, इस गुरू के भाई के साथ, पिता और माता के साथ की उपमा-या बराबरी नहीं हो सकती है अर्थात् माता, पिता, भाई आदि से भी अधिक उपकारी है। इसलिए धर्म में एक स्थिर बुद्धि वाले तुम इनको ही हमेशा यावज्जीव रक्षण करने वाले और शरण रूप स्वीकार करना । तुम मोक्षार्थी हो और उस मोक्ष का उपाय गुरू के बिना और कोई नहीं है। इसलिए गुणों के निधि-यह गुरू ही निश्चय तुमसे सेवा करने योग्य है। तथा तुम्हें वचन से, तुम्हें परस्पर सम्यक उपकारी भाव से व्यवहार करना चाहिए। क्योंकि-विपरीत आचरण से गुण लाभदायक नहीं होता है । और जैसे धूरी के बिना चक्र विशेष घुमाने की शक्ति प्राप्त नहीं कर सकता है वैसे ही डण्ठल के बिना पुष्प शोभा नहीं देता है और पत्ते जैसे शरीर को बाँध नहीं सकता है, वैसे तुम भी निश्चय रूप इस गुरू के बिना संगठन को प्राप्त नहीं कर सकते हो। और धूरी के बिना चक्र और पत्ते रहित डण्ठल भी शोभायमान नहीं होता, वैसे परिवार बिना का स्वामी भी कार्यकर नहीं हो सकता है। परन्तु जो अवयव और अवयवी परस्पर अपेक्षा वाले बनते हैं तो इच्छित अर्थ की सिद्धि प्राप्त करते हैं और शोभा को भी प्राप्त करते हैं। जैसे नाक, मुख से और मुख भी नाक से शोभा प्राप्त करता है वैसे स्वामी उत्तम परिवार से शोभा प्राप्त करता है और परिवार भी उत्तम स्वामी से शोभा प्राप्त करता है। इसी तरह वन के पशु और सिंह का परस्पर रक्ष्य, रक्षक करने वाले का सम्यक् विचार करके तुम्हें गुरू शिष्यों को परस्पर वर्तन करना चाहिए । अधिक कहने से क्या लाभ ? भ्रमण विहार आदि करने में, आहार करने में, पढ़ने में, बोलने में, इत्यादि सर्व प्रवृत्तियों में अति विनीत, गम्भीर स्नेहयुक्त बनना, यह उपदेश का सार है। इस तरह हमने तुमको करूणा भाव से और प्रियता होने से यह उपदेश दिया है। अतः जिस प्रकार यह निष्फल न हो इस तरह तुमको करना चाहिये।
शिष्यों की गुरू प्रति कृतज्ञता :-उसके पश्चात् पृथ्वी के साथ में घिसते मस्तक के ऊपर गुरूदेव के चरण-कमल को धारण करते आनन्द के अश्रुधारा को बरसाते, शोक से अथवा पश्चाताप से गला भर जाने से मन्द-मन्द प्रगट होता गद्गद् आवाज वाला, उष्ण-उष्ण लम्बे निःश्वास निकलते हुये को रोकता हुआ वह शिष्य गुरुदेव के हितकर, मंगल स्वरूप, देवरूप और चैत्यरूप मानता हुआ गुरूदेव के सामने "इच्छामो अणुसठिछ अर्थात् आपकी शिक्षा को बार-बार
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