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श्री संवेगरंगशाला
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आचार्य के चरण-कमल में (निश्रा में ) रहता हुआ आगन्तुक भी अवश्य आराधक बनता है। इस तरह शुद्ध बुद्धि – सम्यक्त्व की संजीवनी औषधि तुल्य और मृत्यु के सामने युद्ध में जय पताका प्राप्त कराने में निर्विघ्न हेतुभूत यह संवेगरंगशाला नाम की आराधना के दस अन्तर द्वार वाला गण संक्रम नामक दूसरे द्वार में परगण संक्रम नामक चौथा अन्तर द्वार कहा है । इस तरह परगण में संक्रम करने पर भी यथोक्त पूर्व कहा है ऐसा सुस्थित (आचार्य) की गवेषणा प्राप्ति बिना इष्ट कार्य की सिद्धि नहीं होती है, इसलिए अब उसका निरूपण करते हैं ।
पांचवां सुस्थित गवेषणा द्वार : - उसके बाद सिद्धान्त में प्रसिद्ध कही हुई विधि द्वारा अपने गच्छ को छोड़ने वाला और समाधि को चाहने वाला वह आचार्य राजा बिना का एकत्रित हुआ युद्ध में कुशल महान् सेनानायक की जैसे खोज करता है, वैसे सार्थवाह बिना का अतिदूर नगर में प्रस्थान करने वाला व्यक्ति सार्थवाह (सार्थीदार) को खोजता है, वैसे क्षपक परगण के चारित्र आदि बड़े गुणों की खान के समान गुरू बिना का जानकर क्षेत्र की अपेक्षा से छह सौ सात सौ योजन तक खोज करे और काल की अपेक्षा बारह वर्ष तक निर्यामक आचार्य श्री की खोज करे । वह किस तरह आचार्य श्री की खोज करे ? उसे कहते हैं ।
सुस्थित का स्वरूप :- चारित्र द्वारा प्रधान - श्रेष्ठ, शरणागत वत्सल, स्थिर, सौम्य, गम्भीर, अपने कर्त्तव्य में दृढ़ अभ्यासी । इन बातों से प्रसिद्धि प्राप्त करने वाले और महासात्त्विक इस तरह सामान्य गुण सहज स्वभाव से होते हैं । और इसके अतिरिक्त - १ - आचारवान, २ - आधारवान, ३ - व्यवहारवान, ४ - लज्जा को दूर कराने वाला, ५-शुद्धि करने वाले, ६ - निर्वाह करने वाला - निर्यामक, ७- अपाय दर्शक, और ८ - अपरिश्रावी । ये आठ विशेष गुण वाले की खोज करे ।
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१. आचारवान :- जो ज्ञानाचार दर्शनचार, चारित्रचार, तपाचार और वीर्याचार पंच विधि आचार हो वह अतिचार रहित पालन करे, दूसरे को पंचाचार पालन करावे और यथोक्त - शास्त्रानुसार उपदेश दे, उसे आचारवान कहते हैं । अचेलक्य आदि दस प्रकार के स्थिर कल्प में जो अति रागी हैं और अष्ट प्रवचन माता में उपयोग वाला होता है, वह आचारवान कहलाता है । इस प्रकार आचार अर्थी साधु के दोषों को छुड़वाकर गुण में स्थिर करे, इससे आचार का अर्थी आचार्य निर्यामक होता है ।