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श्री संवेगरंगशाला
२७१ अथवा दादा समान निराधार का आधार, अनाथ का नाथ बनना। तथा इस दुषमाकाल रूपी कठोर गरमी में धर्मबुद्धि रूप जल की तृष्णा वाला साधुओं का तथा संसर्ग से दूर रहने वाली भी 'यह तेरी अन्ते वाणियाँ हैं' ऐसा समझकर साध्वियों को भी, मुक्तिपुरी के मार्ग में चलने वाले सुविहित साधुओं की आचार रूपी पानी परव (प्याऊ) में रहा हुआ तू देशना रूप नाल द्वारा कर्तव्य रूपी जल का पान करना, तथा इस लोक में सारणादि करे, वह इस लोक का आचार्य है और परलोक के लिये जैन आगम का जो स्पष्ट उपदेश दे वह परलोक का आचार्य । इस तरह आचार्य दो प्रकार के होते हैं। इसमें यदि आचार्य सारणा न करता है, वह जीभ से पैर को चाटता है अर्थात लाड-प्यार करता है तो भी हितकर नहीं है, यदि दण्ड से मारे और सारणादि करे वह भी हितकर नहीं है। जैसे कोई शरण में आए का प्राण नाश करता है, उसे महापापी गिना जाता है। वैसे गच्छ में सारणादि करने योग्य को भी सारणादि नहीं करे तो वह आचार्य भी वैसा जानना । इसलिये हे देवानुप्रिय ! तू सम्यक परलोक आचार्य बनना, केवल इस लोक का आचार्य बनकर स्व-पर का नाशक नहीं बनना। क्योंकि दुःखियों को तारने में समर्थ परम ज्ञानी आदि गुण को प्राप्त करके जो संसार के भय से डरते जीवों का दृढ़ रक्षण करता है, वह धन्य है । तथा साधु मन, वचन या काया से तुझे सैंकड़ों अनिष्ट अपराध करे, फिर भी तू उनका हितकर ही बनना, अप्रीति को अल्प भी नहीं करना। किसी एक का पक्षपात किए बिना रोषादि का जय करके सर्व सामियों के प्रति समचित्त रूप वर्तन करना । सर्व जीवों के प्रति बन्धु-भाव करने योग्य करना। परन्तु जो अपनी आत्मा को एकाकी ही रागी करता है उसके समान दूसरा मूढ़ कौन हो सकता है ? स्वयं क्लेश सहन करके भी तेरे साधर्मिक साधुओं के कार्यों में किसी तरह उत्तम प्रकार से वर्तन करना चाहिए कि जिससे तू उनका अमृत तुल्य बन जाये।
ऐसा करने से तेरी कीर्ति तीनों जगत को शोभायमान होगी। इस कारण से ही किसी ने चन्द्र के उद्देश्य से कहा है कि-हे चन्द्र ! गगन मण्डल में परिभ्रमण कर और दिन प्रतिदिन क्षीण आदि दुःखों को सतत् सहन कर, क्योंकि सुख भोगने से आत्मा को जगत् प्रसिद्ध नहीं कर सकता है। तथा अज्ञानवश या विकारी प्रकृति के दोष से जो अपना मन, वचन, काया से पराभव ही करता है, उनको भी तुझे 'तू स्वामी होने के कारण बहुत सहन करके भी मधुर वचनों द्वारा उस क्षुद्र भूलों से प्रयत्नपूर्वक रोकनी चाहिये । हे भद्र ! अविनीत को शिक्षा देते तू किसी समय कृत्रिम क्रोध करे तो भी अन्तर