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श्री संवेगरंगशाला
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प्राप्त करने वाली और अभिमान से अपमान करने वाली, दोष को देने वाली फिर भी संयम गुण में एक समान राग वाली । उन सब साध्वियों का तुम विनयादि करने में गुरूणी के समान, बिमारी आदि के समय में उनकी अंग परिचारिका — वैयावच्य सेवा करने के समान, शरीर रक्षा में धाय माता के समान अथवा बेचैनी के समय में प्रिय सखी के समान, बहन के समान या माता के समान अथवा माता, पिता और भाई के समान बनना । तुम्हें अधिक क्या कहें ? जैसे अत्यन्त फल वाले बड़े वृक्ष की शाखा सर्व पक्षियों के लिये साधारण होती है, वैसे गुरूणी के उचित गुणोंरूपी फल वाला, तुम भी सर्व साध्वियों रूप पक्षियों के लिए अत्यन्त साधारण - निष्पक्ष बनना । इस तरह प्रवर्तिनी को हित - शिक्षा देकर फिर सर्व साध्वियों को हित- शिक्षा दें, जैसे कि -
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साध्वियों को अनुशास्ति : - ये नये आचार्य तुम्हारे गुरू, बन्धु, पिता अथवा माता तुल्य हैं । हे महान् यश वालियों यह महामुनिराज भी एक माता से जन्मे हुए बड़े भाई के समान तुम्हारे प्रति सदा अत्यन्त वात्सल्य में तत्पर हैं । इसलिए इस गुरू और मुनियों को भी मन, वचन और काया से प्रतिकुन वर्तन नहीं करना, परन्तु अति सन्मान करना । इस तरह प्रवर्तिनी को भी निश्चय उनकी आज्ञा को अखण्ड पालकर ही सम्यक् अनुकू बनना, परन्तु अल्प भी कोपायमान नहीं होना । किसी कारण से जब यह कोपायमान हो तब भी मृगावती जैसे अपनी गुरूणी को खमाया था वैसे तुम्हें अपने दोषों को कबूलात पूर्वक प्रत्येक समय पर उनको खमाना चाहिए। क्योंकि हे साध्वियों ! मोक्ष नगर में जाने के लिये तुम्हारे वास्ते यह उत्तम सार्थवाहिणी है, और तुम्हारा प्रमाद रूपी शत्रु की सेना को पराभव करने में समर्थ प्रतिसेना के समान है । तथा हित- शिक्षा रूपी अखण्ड दूध की धारा देने वाली गाय के समान है । इसी प्रकार अज्ञान से अन्ध जीवों के लिए अन्जन शलाका के समान है । इससे भ्रमरियों को मालती के पुष्प की कली समान, राज हंसनियों के कमलिनी के समान और पक्षियों के वन राजा के समान तुम्हारी यह प्रवर्तिनी को गुण रूपी पराग के लिए, शोभा के लिए और आश्रय के सेवा करने योग्य है। तथा क्रीड़ा, क्लेश, विकथा और प्रमाद रूपी शत्रु - मोह सेना का पराभव करके हमेशा परलोक के कार्य में उद्यमी बनना, जिससे तुम्हारा जन्म पूर्णकर जीवन को सफल करना, और छोटे-बड़े भाई- बहनों के समान संयम योग की साधना में परस्पर सम्यक् सहायक होना, तथा मन्द गति से चलना, प्रगट रूप में हँसना नहीं और मन्द स्वर से बोलना, अथवा तुमने सारी प्रवृत्ति मन्द रूप में करना । आश्रम के बाहर एकाकी पैर भी नहीं रखना और