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श्री संवेगरंगशाला
के दूज की चन्द्रकला प्रकृति से ही शीतल और मोति के हार समान उज्जवल अन्यान्य कलाओं का आश्रय करता है, वैसे उस प्रकार के अपने गुणों से दूज के चन्द्र समान लोक में पूजा पात्र बनना और प्रकृति से ही अति निर्मल गुण वाले तुम्हारा आश्रय लेकर ये साध्वियाँ भी रही हैं, जैसे वह आगन्तुक कलाओं से वह दूज की कलाओं के समान वृद्धि होती है और जैसे वह प्राप्त हुई कलाओं का मूल आधार वह दूज की कला है, अथवा उस दूज की कला बिना शेष कलाओं की अल्प की स्थिति नहीं घटती है, वैसे दूज की कला समान तुम्हारी वृद्धि इन साध्वियों से है । इन साध्वियों का भी मूल आधार तुम हो और सज्जनों के श्लाघनीय उनकी भी स्थिति तुम्हारे बिना नहीं घटती है । तथा जैसे वह दूज की चन्द्रकला शेष कलाओं से रहित नहीं शोभती वैसे तुम भी यह इन साध्वियों के बिना नहीं शोभती और वे भी तुम्हारे बिना नहीं शोभती हैं । इसलिए मोक्ष के साधक योगी (संयम व्यापार की ) साधना करते इन साध्वियों को तुम्हें बार-बार सम्यक् सहायक बनना ।
तथा प्रयत्नपूर्वक इन साध्वियों के स्वेच्छाचार को रोकने के लिये तुम वज्र की सांकल समान, उनके ब्रह्मचर्य आदि गुणों की रक्षा के लिये पेटी समान, उनके गुणरूपी पुष्पों के विकास के लिए अति गाढ़ उद्यान समान, और अन्य पुरुषादि का प्रवेश बस्ती में न हो उनके लिए किल्ले के समान बनना । और जैसे समुद्र का ज्वार केवल अति मनोहर प्रवाल की लता, मोती की सीप तथा रत्नों के समूहों को ही धारण नहीं करती, परन्तु जल में उत्पन्न होने वाला असुन्दर जल की काई सिवाल, नाव और कोड़ियों को भी धारण करते हैं, वैसे तुम भी केवल राजा, मन्त्री, सामन्त, धनाढ्य आदि भाग्यशाली और नगर सेठ आदि की पुत्रियों को, बहुत स्वजनों वाली, अधिक पढ़ी-लिखी विदुषियों को अपने वर्ग -पक्ष का आश्रय करने वाली - सम्बन्धी आदि का पालन निहीं करना, परन्तु उसके बिना सामान्य साध्वियों का भी पालन करना, क्योंक संयम भार को उठाने के लिए रूप गुण में सभी समान हैं । और समुद्र का ज्वार तो रत्न आदि धारण करके किसी समय फैंक भी देते हैं, परन्तु तुम इन धन्यवतियों को सदा सम्भाल कर रखना, किसी समय छोड़ना नहीं । और दीन दरिद्र बिना पढ़ा हुआ, इन्द्रिय से विकल, कम हृदय या प्रीति वाली अथवा कम समझने वाली, बंधन रहित तथा पुण्यादि शक्ति रहित प्रकृति से ही अना - दर वचन वाली, विज्ञान से रहित, बोलने में असमर्थ, अचतुर तथा मुख बिना की, सहायक बिना की, अथवा सहायता नहीं कर सके ऐसी वृद्धावस्था वाली, शिष्ट बुद्धि बिना की, खण्डित या विकल अंग वाली विषम अवस्थान को