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श्री संवेगरंगशाला एक ही चन्द्र को देखता हूँ।" तब सूरि जी ने जाना कि-निश्चय ही जीवन का अन्त आ गया है। इससे मैंने पूर्व में नहीं देखा हुआ, यह उत्पात हुआ है। क्योंकि-चिरकाल जीने वाला मनुष्य ऐसा दूसरों का आश्चर्य कारण और अत्यन्त अघटित उत्पात को कभी भी नहीं देखता है अथवा ऐसे विकल्प करने से क्या लाभ ? उत्पात के अभाव में भी मनुष्य तृण के अन्तिम भाग में लगा हुआ जल-बिन्दु देखने पर अपने जीवन को चिरकाल रहने का नहीं मानता। इससे प्रति समय नाश होते जीवन वाले प्राणियों को इस विषय में आश्चर्य क्या है ? अथवा व्याकुलता किसलिये ? अथवा संमोह क्यों होवे ? उल्टा चिरकाल निर्मल शील से शोभित उत्तम घोर तपस्या वाला तपस्वियों को तो परम अभ्युदय में निमित्त रूप मरण भी मन को आनन्द करता है । परन्तु पाथेय बिना का लम्बे पंथ के मुसाफिर के समान जो परभव जाने के समय सद्धर्म की उपार्जन करने वाला नहीं है, वह दुःखी होता है। इसलिए मैं उत्तम गुण वाले सभी साधुओं के नेत्र को आनन्द देने वाले एक मेरे शिष्य के ऊपर गच्छ का भार रखकर मैं अत्यन्त विकिलष्ट उग्र विविध जात की तपस्या से काया को सुखाकर एकाग्र मन वाला दीर्घ साधुता का फल प्राप्त करूँ ।
परन्तु मेरे इन शिष्यों में कोई स्वभाव से ही क्रोधातुर है और शास्त्र के परमार्थ को जानने में कोई भी कुशल नहीं है, कोई रूप विकल है तो कोई शिष्यों का अनुवर्तन करवाने का नहीं जानता है, कोई झगड़ा करने वाला है, तो कोई लोभी तो कोई मायावी है और कोई बहुत गुण वाला है, परन्तु अभिमानी है । हा ! क्या करूं ? ऐसा कोई सर्व गुण नहीं है कि जिसके ऊपर यह गणधर पद का आरोपण करूं । शास्त्र में कहा है कि-"जानते हुए भी स्नेह राग से जो यह गणधर पद को कुपात्र में स्थापन करता है, वह शासन का प्रत्यनिक है।" इस तरह शिष्यों के प्रति अरुचित्व होने के कारण इस प्रकार के कई गुणों से युक्त होने पर भी शिष्य समुदाय की अवगणना कर और भावी अनथे का विचार किये बिना ही समय के अनुरूप कर्त्तव्य में मूढ़ बने उन्होंने कुल अल्पमात्र संलेखना को करके भक्त परिक्षा अनशन को स्वीकार किया। फिर गुरू अनशन में रहने से जब सारणा-वारणादि का सम्भव नहीं रहा तब जंगल के हाथियों के समान निरंकुश बना तथा गुरू को शिष्यों के प्रति उपेक्षा वाला देखकर, गुरू से निरपेक्ष बने हुये शिष्य भी उनकी सेवा आदि कार्यों में मन्द आदर वाले हए और आचार्य भी उनको इस तरह देखकर हृदय में संताप करते अनशन को पूर्ण किए बिना ही मरकर असुर देवों में उत्पन्न हुए। शिष्य समुदाय भी जैसे नायक बिना के नागरिक शत्रु के सुभट समूह से पराभव प्राप्त