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श्री संवेगरंगशालो महाराजा, सेनापति, बड़े-बड़े धनाढ्य, सामन्त और मन्त्रियों की अनेक पुत्रियों ने उसके साथ विवाह किया और दीर्घकाल तक उनके साथ में उसने एक ही साथ में पाँच प्रकार के विषय सुख के भोग किए। फिर मर कर वह गंगदत्त अपने दुराचरण के कारण संसार के चक्र में गिरा और वहाँ अति तीक्ष्ण लाखों दुःखों का चिरकाल भाजन बना।
इसलिए कहा है कि पहले द्रव्य भाव इस तरह दोनों प्रकार की संलेखना करके बाद में भक्त परिक्षा को करना चाहिये । इस तरह यह प्रथम द्वार में कहा है । परिकर्म करने वाले को प्रायः आराधना का भंग न हो ऐसी सम्यग् आराधना करनी चाहिए। श्री जैनेश्वर भगवान की आज्ञा भी यही है। इस तरह श्री जैन चन्द्र सूरिश्वर रचित परिकर्म विधि चार बड़े मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना के पन्द्रह अन्तर द्वार वाला, प्रथम परिक्रम विधि नामक द्वार का अन्तिम संलेखना नामक प्रतिद्वार जानना । और यह कहने से पन्द्रह अन्तर द्वार वाला परिक्रम विधि नाम का प्रथम महाद्वार भी सम्यग् रूप सम्पूर्ण हुआ, ऐसा जानना। इस तरह संवेगरंगशाला नामक आराधना के पन्द्रह अन्तर द्वार वाला परिकर्म विधि नामक प्रथम द्वार यहाँ ४१६८ श्लोकों से समाप्त हुआ।
॥ इति श्री संवेगरंगशाला प्रथम द्वार॥