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श्री संवेगरंगशाला
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होंठ को परवाल के साथ, दाँत को मोगरे की कलियों के साथ, आँखों को कमल पत्रों के साथ, भाल को अष्टमी के चन्द्र के साथ, और मस्तक के बाल मयूर के पिच्छ समूह के साथ तुलना उपमा देते हैं वह तेरे अन्तर में उछलती राग की महीमा है । इसलिए हे मन ! देखने में सुन्दर भी अति दुर्गन्धमय मांस, रूधिर, मल और हड्डी का पिंजर, इत्यादि से भरा हुआ मल का भण्डार रूप स्त्रियों में तू राग नहीं कर ! शब्दादि विषयों के समूदाय रूपी सरोवर में विलास करता हआ हे मन रूपी मछली ! तुझे पकड़ने के लिए कामरूपी मछुआ स्त्रियों रूपी मांस वाली जाल डाली है, स्त्री के संग रूपी मांस में प्रेमी बने तुझे इस जाल से शीघ्र खींचकर हे मूढ़ ! काम के तीव्र अनुराग रूपी अग्नि में सर्व प्रकार से सेकेंगे। हे मन ! यदि तेरे में अमृत तुल्य जैन वचन सम्यक रूप आचरण आ जायें तो स्त्रियों का हास्य और ललित विलासी हाव भाव भी उसे लेशमात्र भी विकार नहीं करते हैं। हे मन ! जिसके वियोग रूपी अग्नि से जलते तू मुहुर्त मात्र को भी सौ वर्ष से अधिक मानता है, उन स्त्रियों के साथ तेरा कोई ऐसा वियोग होगा कि जिससे सैंकड़ों सागरोपम तक भी पुनः एक समय मात्र संयोग की आशा भो नहीं होगी। हे चित्त ! अपने शरीर में भी अपना जीव भी अत्यन्त निवास को नित्य स्थान नहीं प्राप्त कर सकता है तो अन्य स्थान पर कोई कैसे प्राप्त कर सकता है । हे मन ! इस जगत में जन्म पानी के बुलबुले के समान होता है और नाश होता है वैसे निश्चय ही संयोग और वियोग होता है और नाश होता है। हे मन ! स्वभाव से ही नाशवंत फिर भी प्राण इस शरीर में क्षण वार स्थिर रहते हैं वह आश्चर्य है, क्योंकि बिजली का प्रकाश क्षण से अधिक नहीं रहता ? हे हत हृदय ! इष्ट के साथ संयोग क्षण मात्र और फिर उसका वियोग हजारों भव तक रहता है, तो भी तू प्रिय का संगम ही चाहता है । हे हृदय ! कुपथ्य के जैसा अल्पमान मनोहर सदृश प्रिय संयोग को भोगने का परिणाम भयंकर ही आता है। इसलिए संसार में संतोषी बन, तप में रागी और सर्वत्र निरभि नापी, तुझे दुर्गति के मार्ग से बचाने वाला धर्म मार्ग में स्थिर हो । हे मानव ! चक्री और इन्द्रपने में भी जो नहीं है वह इस धर्म की प्राप्ति से होता है तो अब तेरे में क्या अपूर्णता रही ? कि जिससे तू संतोष के लिए खेद करता है ? अर्थात् धर्म की प्राप्ति से सर्व की प्राप्ति है । तथा हे मन ! संतोष करने से तुने धन की प्राप्ति की, रक्षण करने की, और व्यय करने की वेदना से मुक्त होयेगा और इस जन्म में भी तुझे परम शान्ति की प्राप्ति होगी।
हे मन ! संतोष रूपी अमृत रस से भिने तुझे हमेशा ही सूख होता है, वह सुख इधर-उधर की चिन्ता में, आसक्ति में, असंतोषीपन में तुझे कहाँ