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श्री संवेगरंगशाला
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(३) चारित्र के अभ्यास रूपी भावना, (४) सूत्रों के विशेष अर्थ की प्राप्ति, (५) कुशलता और (६) विविध देशों का परिचय प्राप्त होती है । वह इस प्रकार :
परीक्षा, ये छह गुणों की
श्री जिनेश्वर भगवन्तों की दीक्षा, केवल ज्ञान और निर्वाण की पवित्र भूमियाँ, जहाँ चैत्य, चिह्न, प्राचीन अवशेष स्थान तथा जन्म भूमियों को देखने से आत्मा प्रथम, सम्यग्दर्शन को अति विशुद्ध करता है । यात्रा करते हुए स्वयं संवेगी को सविशेष संवेग प्राप्त करता है, सुविहितों को उस विधि का दर्शन तथा में अस्थिर बुद्धि वाले को स्थिरता प्रकट करता है, अन्य संवेगियों को, धर्म प्रीति वालों को तथा पाप में भीरू आदि को देखकर स्वयं भी धर्म में प्रीतिवाला और स्थिर होता है, प्रायः प्रियधर्मी और दृढ़धर्मी बनता है, इस तरह विहार से परस्पर धर्म में दूसरा स्थिरीकरण गुण प्राप्त करता है । अनियत विहार से चलने का, भूख-प्यास का, ठंडी और गरमी का इत्यादि परीषहों को सहन करने का अनुभव, व सति रहने का स्थान, किस तरह मिलता उसका सम्यक् सहन करने का चारित्र अभ्यास रूप तीसरी भावना होती है । विहार करने वाले को अतिशय श्रुत ज्ञानियों के दर्शनों का लाभ होता है, उससे सूत्र - अर्थ का स्थिरीकरण तथा अतिशय गूढ़ अर्थों का तथा उसका रहस्य जानने का चौथा सूत्र विशेष अर्थ की प्राप्ति होती है । विहार करते नये-नये समुदाय में रहने से अनेक प्रकार के आचार्यों के गण में सम्यक् प्रवेश करते निष्क्रमण आदि देखने से उस विधि में और अन्य सामाचारी में भी पांचवाँ कुशलता गुण उत्पन्न होता है । और विहार करने से साधु को जहाँ निर्दोष आहारादि आजीविका सुलभ हो ऐसे संयम के योग्य क्षेत्र का परिचय छठा परीक्षा होता है |
इसलिए छह गुण प्राप्ति की इच्छा वाले मुनि को जब तक पैरों में शक्ति हो तब तक अनियत विहार की विधि को पालन करनी चाहिये अर्थात् अप्रतिबद्ध विहार करना चाहिये, यदि बलवान होने पर भी रस आदि की आसक्ति से विहार में प्रमाद करता है उसे केवल साधु ही छोड़ देते हैं ऐसा नहीं ही परन्तु गुण भी उसे छोड़ देते हैं । और वही शुभभाव होने फिर से उत्पन्न से विहार में उद्यमशील होता है, तो उसी समय साधु के गुणों से युक्त बन जाता है । प्रमाद रूप स्थिर वास और अप्रमाद रूप नियत विहार इन दोनों विषय में सेलक सूरि का दृष्टान्त रूप है वह इस प्रकार :