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श्री संवेगरंगशाला
भी अन्यत्र हरण किया हो, उस मूल स्थान से अन्य स्थान में कालधर्म प्राप्त करना उसे नीहारिक कहा जाता है और उपसर्ग रहित मूल स्थान में ही मरे उसे दूसरा अनीहारिक कहते हैं। पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय वाले स्थान में संहरण करने पर भी शरीर का ममत्व के त्याग द्वारा और सेवा-सार सम्भाल नहीं करने वाला, उसका त्यागी वह महात्मा जब तक जीयेगा तब तक वह अनशन का पालन करेगा, जरा भी हलन चलन नहीं करता है। शोभा अथवा गंधादि विलेपन से यदि कोई विभूषित करे तो भी जोवन तक शुद्ध लेश्या वाला, पादपोपगमन वाला मुनि चेष्टा रहित रहता है। क्योंकि-खड़ा हुआ अथवा लम्बा पड़ा हो तो भी शरीर के अंग लम्बे चौड़े किये बिना उद्धर्तनादि से रहित और जड़ के समान हलन चल नादि चेष्टा से रहित होते हैं। इससे वह वृक्ष के समान दिखता है । इस तरह सत्तरहवें प्रकार के मरण के स्वरूप का वर्णन कुछ अल्पमात्र किया है, अब वह अन्तिम तीन मरणों के विषय में कहने योग्य कुछ कहता हूँ।
सर्व साध्वी, प्रथम संघयण बिना के पुरुष और सब देश विरति धारक श्रावक भक्त परिक्षा को स्वीकार कर सकता है, परन्तु इंगिनी मरण को तो अति दृढ़ धैर्य वाला और बल वाला पुरुष ही आचरण कर सकता है। साध्वी आदि को उसका प्रतिषेध बतलाया है। और आत्म-शरीर संलेखना करने वाले या नहीं करने वाले तथा दृढ़तम बुद्धि बल वाले, प्रथम संघयण वाले, पादपोपगमन अनशन करते हैं। स्नेहवश देव ने तमस्काय-घोर अन्धकार आदि करने में भी वह धीर आत्माएँ स्वीकार किया हुआ विशुद्ध ध्यान से अल्प भी चलित नहीं होते हैं । चौदह पूर्वी का विच्छेद होते वह पादपोपगमन करने वालों का भी विच्छेद होता है। क्योंकि उसके बाद वह पहला संघयण नहीं होता है। इस तरह इस द्वार में संक्षेप से मरण विधि कहा है। इसका भी फल आराधना के फल को बतलाने वाले द्वार में आगे कहूँगा। इस तरह सिद्धान्त रूपी समुद्र में अमृत तुल्य संवेगरंगशाला नाम की आराधना का मूलभूत प्रथम परिकर्म द्वार में पन्द्रह प्रतिद्वार हैं। उस क्रम के अनुसार यह मरण विभक्ति नामक ग्याहरवाँ द्वार कहा है। पूर्व में सामान्यतया अनेक प्रकार के मरणों को बतलाया है। अब प्रस्तुत पण्डित मरण द्वार के स्वरूप को कहते हैं।
बारहवाँ अधिगत मरण द्वार :-प्रश्न-प्रस्तुत पण्डित मरण किस प्रकार है ? उत्तर-दुःख के समूह रूप लताओं का नाश करने लिए एक तीक्ष्ण धार वाला महान कुल्हाड़ी के समान है। और इससे विपरीत मरण को मोह मैल रहित श्री वीतराग भगवन्तों ने बाल मरण कहा है। इन दोनों का स्वरूप