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श्री संवेगरंगशाला से लालन-पालन किया हो और योग अभ्यास को नहीं सिखाया हो वह घोड़ा युद्ध के मैदान में लगाने से कार्य सिद्ध नहीं कर सकता है, वैसे पूर्व में अभ्यास किए बिना का मरण काल में समाधि को चाहता जीव भी परीषहों को सहन नहीं कर सकता है और विषयों के सुख को छोड़ नहीं सकता है। (२) श्रुत भावना-इसमें श्रुत के परिशीलन से ज्ञान, दर्शन, तप और संयम आत्मा में होता है, इससे वह व्यथा बिना सुखपूर्वक उसे उपयोगपूर्वक चिन्तन में ला सकता है । जयणापूर्वक योग को परिवासित करने वाला, अभ्यासी आत्मा श्री जैन वचन का अनुकरण करने वाला, बुद्धिशाली आत्मा को परिणाम घोर परीषह आ जाये तो भी भ्रष्ट नहीं होता है। (३) सत्त्व भावना-शारीरिक और मानसिक उभय दुःख एक साथ आ जायें तो भी सत्त्व भावना से जीव भूतकाल में भोगे हुए दुःखों का विचार कर व्याकुल नहीं होता है। तथा सत्त्व भावना से धीर पुरुष अपने अनन्त बाल मरणों का विचार करते यदि मरण आ जाए तो भी व्याकुल नहीं बनता है । जैसे युद्धों से अपनी आत्मा को अनेक बार अभ्यासी बनाने वाला सुभट रण-संग्राम में आकुल-व्याकुल नहीं होता, वैसे सत्त्व का अभ्यासी मुनि उपसर्गों में व्याकुल नहीं होता है। दिन अथवा रात्री में भयंकर रूपों द्वारा देवों के डराने पर भी सत्त्व भावना से पूर्ण आत्मा धर्म साधना में अखण्डता वहन करता है । (४) एकत्व भावना-एकत्व भावना से वैराग्य को प्राप्त करने वाला जीव कामभोगों में मन के अन्दर अथवा शरीर में राग नहीं करता है, परन्तु श्रेष्ठ धर्म का पालन करता है। जैसे व्रत भंग होते अपनी बहन में जैन कल्पित मुनि एकत्व भावना से व्याकुल नहीं हुए, उसी तरह तपस्वी भी व्याकुल नहीं होता है। वह इस प्रकार है :
एकत्व भावना वाले मुनि की कथा पुष्पपुर में पुष्पकेतु राजा था। उसकी पुष्पवती नाम की रानी थी। उससे पुत्र-पुत्री का जोड़ा उत्पन्न हुआ। उचित समय पर पुत्र का नाम पुष्पचूल
और पुत्री का नाम पुष्प चला रखा । क्रमशः उन दोनों ने यौवन वय को प्राप्त किया । परस्पर उनका अत्यन्त दृढ़ स्नेह को देखकर, उनका परस्पर वियोग न हो, इसलिए राजा ने अनुरूप समय पर, समान रूप वाले पुरुष के हाथ विवाह करवाकर अपने घर ही रहकर पुष्प चूला पति के साथ समय व्यतीत करती थी। बहन के सतत् परम स्नेह में बँधा हुआ पुष्प चूल भी अखण्ड राज्य लक्ष्मी को इच्छानुसार भोगता था। एक समय परम संवेग को