________________
श्री संवेगरंगशाला
२४५
वहाँ जाकर प्रभु को वन्दन किया । फिर उसके मन के कुविकल्प अहंकार को जानकर, इन्द्र ने अपने ऐरावत हाथी के मुख में श्रेष्ठ आठ दाँत बनाकर, और एक-एक दाँत में आठ-आठ बावड़ियाँ बनायीं । उसके बाद एक-एक बावड़ी में आठ-आठ कमल और कमल में आठ-आठ पंखुड़ियाँ बनायीं । उस प्रत्येक पंखुड़ी के बत्तीस पात्रों से प्रतिबद्ध नाटक करके उस हाथी के ऊपर बैठा और करोड़ों देवों से घिरा हुआ उसने प्रभु को तीन प्रदक्षिणा देकर आश्चर्यकारी ऋद्धिसिद्धि पूर्वक प्रभु को वन्दन किया । ऐसी ऋद्धि वाले इन्द्र को देखकर ऋद्धिगारव से युक्त बने राजा ने विचार किया कि पूर्व में इस इन्द्र ने धर्म किया है। और अन्य में ऐसी आराधना नहीं की । इससे अब भी उस धर्म को संचित अथवा आराधना करूँ । ऐसा विचार कर उस महात्मा ने उसी समय ही राज्य का त्याग कर दीक्षा स्वीकार की । फिर देवी की महिमा से उस पर्वत में औजार से नक्काशी की हो इस तरह इन्द्र के हाथी का आगे पैर पड़ा । इससे वह दशार्णकूट पर्वत तब से ही समग्र लोगों में 'गजाग्रपद' इस नाम से अति प्रसिद्ध हुआ था । इस तरह उस गजाग्रपद पर्वत के ऊपर असाधारण किलष्ट तप करके चारों आहार का त्यागी, साधुओं में सिंह के समान, दीर्घकाल तक निरतिचार चारित्र के आराधक, विधिपूर्वक विविध भावनाओं का चिन्तन करने वाले सुरासुर और विद्याधरों से पूजित, वे भगवन्त श्री आर्य महागिरि जी ने वहाँ काल करके देवलोक प्राप्त किया ।
इस तरह संसारवास के विनाश को चाहने वाला सर्व आत्माएँ निश्चय रूप प्रमाद को छोड़कर प्रशस्त भावनाओं में प्रयत्न करना चाहिए । इस तरह चार कषाय के भय को रोकने के लिए इस संवेगरंगशाला नाम की आराधना का मूल प्रथम परिकर्म विधि द्वार में प्रस्तुत पन्द्रह अन्तर द्वार वाला है, वह अनुक्रम से यह चौदहवाँ भावना नामक अन्तर - पति द्वार कहा है । अब अति प्रशस्त भावना का चिन्तन करने वाला भी संलेखना बिना आराधना करने में समर्थ नहीं हो सकता है । इसलिए अब संलेखना द्वार कहते हैं । अथवा पूर्व में अर्द्ध-अर्थात् योग्यता आदि सर्व द्वार में परिकर्म ( आराधना) करने का ही बतलाया है । वह परिकर्म भाव शुद्धि से होती है । भाव शुद्धि भी रागादि की तीव्र वासना के विनाश से होती है, और वह विनाश भी महोदय का विध्वंस के कारण होता है । वह विध्वंस प्रायः शरीर और धातुओं की क्षीणता से होता है, और वह क्षीणता भी विविध तप आदि करने से होता है । यह तपश्चर्या भी उस संलेखना के अनुकरण करने से होता है, उस प्रस्तुत कार्य को ( अनशन को) सिद्ध कर सकते हैं । इसलिए अब विस्तारपूर्वक संलेखना द्वार को कहते हैं ।