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श्री संवेगरंगशाला जिससे मैं भी पच्यक्खाण करूँ ? उसने कहा कि पच्यक्खाण करने से विरति रूप गुण होता है, परन्तु पच्यक्खाण लेकर खण्डन करने से महान दोष होता है। उसने कहा कि हे भोली ! क्या तूने मुझे कभी भी रात्री में भोजन करते देखा है ? अपमानपूर्वक ऐसा कहकर उसने पच्यक्खान किया। फिर उस प्रदेश में रहने वाली एक देवी ने विचार किया कि-अपमान करते इसके अविनय को दूर करूँ। फिर दिव्य लड्डु को भेंट रूप लेकर वह देवी उसकी बहन के रूप से रात्री में वहाँ आई और उसे खाने के लिये उस लड्डु को दिया। उसे लेकर वह खाने लगा, तब श्राविका ने निषेध किया। इससे उसने कहा किहे भोली ! तेरे कपट नियम से मुझे अब कोई प्रयोजन नहीं है। यह सुनकर हे पापी ! हे शुभ सदाचार से भ्रष्ट ! तू जैन धर्म की भी हँसी करता है ? ऐसा बोलती उत्पन्न हुए अति क्रोध से लाल आँखों वाली, उस देवी ने रात्री भोजन में आसक्त उसके मुख पर ऐसा प्रहार किया कि जिससे उसकी आँखों की दोनों पुतली जमीन पर गिर पड़ी। तब 'अरे ! यह महान् अपयश होगा।' ऐसी कल्पना से भयभीत बनी हुई उस श्राविका ने श्री जैनेश्वर देव के समक्ष काउस्सग्ग किया। इससे मध्य रात्री के समय देवी ने आकर कहा कि मेरा स्मरण क्यों किया? उसने कहा कि हे देवी ! इस अपयश को दूर करो। इससे देवी ने उसी क्षण में ही मरे हुए बकरे की आँखों को लाकर उसकी दोनों आँखों में स्थापित की। फिर प्रभात होते स्वजन और नगर के लोगों ने आश्चर्य पूर्वक कहा कि-भो! यह क्या आश्चर्य है ? कि तू एलकाक्ष अर्थात् बकरे की आँख वाला हुआ। इस तरह से वह सर्वत्र ‘एलकाक्ष' नाम से प्रसिद्ध हुआ और फिर उसके कारण से नगर भी ‘एलकाक्ष नगर' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अब पूर्व में 'दशार्णकूट' नाम से जगत में प्रसिद्ध था। वह पर्वत भी जिस तरह 'गजाग्रपद' नाम से प्रसिद्ध हुआ, उसे कहते हैं :
गजानपद पर्वत का इतिहास :-पूर्वकाल में उस दशार्णपुर नगर में दशार्णभद्र नामक महान राजा राज्य करता था। उसे पाँच सौ श्रेष्ठ रूपवती स्त्रियों का अन्तःपुर था। अपने यौवन से, रूप से, राजलक्ष्मी से और प्रवर सेना से युक्त वह अन्य राजाओं की अवज्ञा करता था। एक समय उस दशार्णकूट पर्वत के ऊपर जगत के नाथ श्री वर्धमान स्वामी पधारे और देव भी आए। उस समय “सर्व सामग्री से विभूषित होकर मैं श्री भगवन्त को इस तरह वंदन करने जाऊँ कि इस तरह पूर्व में कोई भी वन्दन करने नहीं गया हो।" ऐसा अभिमान को करते उस दशार्णभद्र राजा ने सर्व प्रकार के आडम्बर से युक्त होकर, चतुरंगी सेना सहित, अन्तःपुर को साथ लेकर, हाथी के ऊपर बैठकर