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श्री संवेगरंगशाला
होता है, और जो इष्ट होने पर भी निरनुबन्धी-वियोग होता है और जो दुःख से पार हो सके, ऐसा अनिष्ट होने पर भी सानुबन्धी अर्थात् संयोग जीव को प्राप्त होता है । इस तरह बाल मरण का भयंकर स्वरूप जानकर धीर पुरुषों को पण्डित मरण का स्वीकार करना चाहिए । पण्डित शब्द का अर्थ इस प्रकार से है
'rust' अर्थात् बुद्धि उससे युक्त हो, उसे पण्डित कहते हैं, और उसकी जो मृत्यु उसे पण्डित मरण कहते हैं । इसे शास्त्र द्वार में जो पण्डित मरण कहा है वह भक्त परिक्षा ही है कि जिसके मरने से मरने वाले को निश्चय इच्छित फल की सिद्धि होती है । वर्तकाल में दुःषमकाल है, अनिष्ट अन्तिम संघयण है, अतिशायी ज्ञानी पुरुषों का अभाव है, तथा दृढ़ धैर्य बल का नहीं होने पर भी यह भक्त परिक्षा मरण भी सुन्दर है । काल के योग साध्य है, जो पादपोपगमन और इंगिनी मरण से मिलता हुआ और वैसा ही फल देने वाला है । यह भक्त परिक्षा निश्चय मनोवांछित शुभ फल देने में कल्पवृक्षों का एक महा उपवन है और अज्ञानरूपी अन्धकार से गाढ़ दुःषम कालरूपी रात्री में शरद का चन्द्र है और यह भयंकर संसाररूपी मरुस्थल में लहराते निर्मल जल का सरोवर है और अत्यन्त दरिद्रता का नाश करने वाला श्रेष्ठ चिन्तामणी है, और वह अति दुर्गम दुर्गति रूप मार्ग में फँसे हुये को बचाने के लिए उत्तम मार्ग है, और मोक्ष महल में चढ़ने के लिए उत्तम सीढ़ी है । बुद्धिबल से व्याकुल, अकाल में मरने वाला, दृढ़ धर्म में अभ्यास रहित भी वर्तमान काल के मुनियों के योग्य यह मरण निष्पाप और उपसर्ग रहित है । इसलिए व्याधि ग्रस्त और मरेगा ही ऐसा निश्चय वाला भव्य आत्मा साधु या गृहस्थ को भक्त परिक्षा रूप पण्डित मरण में यत्न करना चाहिए । पण्डित मरण से मरे हुये अनन्त जीव मुक्ति महल प्राप्त करते हैं और बाल मरण से पुनः संसार रूपी भयंकर अरण्य में अनन्ती बार परिभ्रमण करता है। एक बार का एक पण्डित मरण भी जीवों के दुःखों को मूल से नाश करके स्वर्ग में अथवा मोक्ष में सुख देता है । यदि इस जीव लोक में जन्म लेकर सबको को अवश्य मरना है तो ऐसे किसी श्रेष्ठ रूप में मरना चाहिये कि जिससे पुनः मरण न हो । सुन्दरी नन्द के समान तिर्यंच रूप बने हुए भी जीव यदि किसी तरह पण्डित मरण को प्राप्त करे, तो इच्छित अर्थ की सिद्धि करता है ।