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श्री संवेगरंगशाला
बिना अज्ञजीवों को तो बार-बार बाल मरण सुलभ है, केवल यह मरण अनर्थ को करने वाली और संसार वर्धक है । क्योंकि बाल - अर्थात् मूर्ख, वह पुनः निदान पूर्वक अनशन रूप विविध तप को करके मरता है, वह अशुभव्यन्तर की जातियों में उत्पन्न होता है । और वहाँ उत्पन्न हुआ वह बालक के समान हँसी, मजाक, दिल्लगी, काम-क्रीडा आदि का व्यसनी वह वैसी क्रीडाओं को करता है कि जिससे पुनः अनादि अनन्त संसार समुद्र में बार-बार परिभ्रमण करता है। इससे पूर्व कर्मों के क्षय के लिए उद्यमी और धीर पुरुष एक बार वह पण्डित मरण को प्राप्त कर संसार का पार पाने वाला होता है । जो एक पण्डित मरण से मरते हैं वे पुनः अनेक मरण नहीं करते हैं, उसी ने अप्रमत्त भाव से चारित्र की आराधना की है । संयम गुणों में सम्यक् संबर को करने वाला और सर्व संग से मुक्त होकर जो शरीर का त्याग करता है वही पण्डित मरण सेमरा कहलाता है । क्योंकि असंवर वाला अनेक काल में भी जितनी कर्म की निर्जरा करता है, उतने कर्मों को संवर वाला और तीन गुप्ति से गुप्त जीव एक श्वास मात्र में खत्म करता है । निश्चय नय से तीन दण्ड द्वार त्यागी, तीनों गुप्त से गुप्त, तीन शल्यों से रहित विविध - अर्थात् मन, वचन, काया से अप्रयत्त जगत के सर्व जीवों की दया में श्रेष्ठ मन वाले, पाँच महाव्रतों में रक्त और सम्पूर्ण चारित्र रूप अट्ठारह हजार शील गुण से युक्त मुनि विधि पूर्वक मरता है, वह आराधक होता है ।
जीव जब शरीर से पूर्ण अर्थात् सशक्त अथवा व्याधि रहित हो श्रुत के सार रूप परमार्थ को प्राप्त किया है और धैर्यकाल हो उसके बाद आचार्य भगवन्त के द्वारा दिया हुआ पण्डित मरण को स्वीकार करता है । रत्न की टोकरी समान यह पण्डित मरण जो प्राप्त होता है वह निश्चय उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त करता है, सविशेष पुण्यानुबन्ध वाला किसी जीव को ही प्राप्त होता है । देहली के पुष्प के समान लोक में दुर्लभ इस पण्डित मरण को पुण्य रहित जीवों को प्राप्त नहीं होता है । यह पण्डित मरण निश्चय सर्व मरणों का मरण है । जराओं को नाश करने में प्रतिजरा है और पुनः जन्म का जन्म है । पण्डित मरण से मरने वाला शारीरिक और मानसिक उभय प्रकार से प्रगट होने वाला असंख्य आकृति वाले सर्व दुःखों को जलांज्जली देता है । और दूसरा - जीवों को जगत में जो इष्ट सुख सानुबन्ध अर्थात् परस्पर वृद्धि वाला होता है । वह सर्व पण्डित मरण के प्रभाव से जानना अथवा - इस संसार में जो कुछ भी इष्ट सानुबन्धी और अनिष्ट निरनुबन्धी होता है, वह सारा पण्डित मरण रूपी वृक्ष का फल जानना । एक ही पण्डित मरण सर्व भवों के