________________
१५४
श्री संवेग रंगशाला
इस तरह इन्द्रियरूपी पक्षी को वश करने के लिए पिंजरे के समान परिकर्म विधि आदि चार मुख्य द्वार वाली संवेगरंगशाला रूप आराधना के पन्द्रह अन्तर द्वार वाला प्रथम परिकर्म विधिद्वार में आठवाँ राजद्वार (राजा का विहार) नामक अन्तर द्वार कहा है ।
नौवाँ परिणाम द्वार : - पूर्व में कहे अनुसार उन सब गुणों के समूह से अलंकृत जीव भी विशिष्ट परिणाम बिना प्रस्तुत आराधना की साधना शक्तिमान नहीं होती है, इसलिए अब परिणाम द्वार कह रहे हैं, इसके दो भेद हैं परिणाम और गृहस्थ के परिणाम । उसमें गृहस्थ वर्ग के परिणाम द्वार के ये आठ अन्तर द्वार हैं - ( १ ) इस भव और परभव के हित की चिन्ता, (२) घर-व्यवहार सम्बन्धी पुत्र को उपदेश, (३) काल निर्गमन, (४) दीक्षा में अनुमति प्राप्ति के पुत्र को समझाना, (५) अच्छे सुविहित गुरू के योग साधना, (५) आलोचना ( प्रायश्चित) देना, (७) आयुष्य ज्ञान प्राप्त करना, और (८) अनशनपूर्वक अन्तिम संघारा रूप दीक्षा को स्वीकार करना ।
इसभव और परभव का हित चिन्तन :- इसमें इस जन्म और परजन्म के गुणों की चिन्ता नामक द्वार इस प्रकार से जानना, पूर्व में कहे अनुसार गुण वाला राजा या सामान्य गृहस्थ जिसने श्री जैन मन्दिर एक या अनेक करवाये हों, अनेक धर्म स्थानों की स्थापना की हो या करवायी हो, इसलोक-परलोक के कार्यों में प्रशस्त रूप से किया हो, विषयों में रति मन्द हो गई हो, धर्म में ही नित्य अखण्ड रागी हो, और धर्मं प्राप्ति आदि घर के विविध कार्यों की आसक्ति से मन को वैरागी बनाया हो, ऐसा वह राजा हो अथवा गृहस्थ किसी दिन मध्य रात्री के समय अति प्रसन्न - निर्मल चित्त वाला बनकर सम्यग् धर्म चिन्तन करते दृढ़ संवेग को प्राप्त कर, संसारवास से अति उद्विग्न मन वाला और नजदीक काल में भावी कल्याण वाला, अल्प संसारी निर्मल बुद्धि से इस प्रकार चिन्तन करे :
श्रावक की भावना :- 1 - किसी अनुकूल कर्म परिणाम के वश से अति दुर्लभ भी अति उज्जवल उच्च कुल में जन्म मिला है । और अन्यान्य गुणों की वृद्धि करने में एक रसिक अन्तःकरण वाले दुर्लभ माता - पिता भी मिले हैं । उनके प्रभाव से दृष्टि से देखा हुआ और शास्त्र में सुने हुए पदार्थों के रहस्यों को स्वीकार करने में निपुण बुद्धि और विद्या तथा विज्ञान को प्रकर्ष रूप में मुझे प्राप्त हुआ है और मेरी भुजा बल से प्राप्त कर निष्पाप धन को भी पाप रहित विधि से इच्छानुसार उचित स्थान पर दान दिया है । मनुष्य योग्य पाँच इन्द्रियों के विषय भोग को भी अखण्ड भोगा है, पुत्रों को