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श्री संवेगरंगशाला
तब व्याकुलता रहित शरीर वाला और भक्ति के समूह से भरे मन वाले वीरसेन ने उस कालसेन को ठगकर कनककेतु को सौंप दिया। राजा ने प्रसन्न होकर उसे आदरपूर्वक हजार गाँव दिये और राजा ने स्वयं उसका नाम सहस्र मल्ल रखा। फिर सन्धि करके हर्षित मन वाले राजा ने सत्कार करके मंडवाधिपति कालसेन को भी उसके स्थान पर भेज दिया । एक समय कालक्रम से सहस्र मल्ल ने वहाँ उद्यान में सुदर्शन नाम के श्रेष्ठ आचार्य श्री को बैठे हुए देखा और भक्ति पूर्वक नमस्कार करते, मस्तक द्वारा उनके चरणों को वन्दना कर जैन धर्म को सुनने की इच्छा वाला वह भूमि के ऊपर बैठा । गुरूदेव ने भी संसार की असारता की उपदेश रूपी मुख्य गुण वाला और निर्वाण की प्राप्ति रूप फल वाला श्री जैन कथित धर्म को कहा और उसको सुनने से अन्तर में अति श्रेष्ठ वैराग्य उत्पन्न हुआ। राजा वीरसेन पुनः गुरू के चरणों को नमन करके बोलने लगा कि हे भगवन्त ! तप-चारित्र से रहित और अत्यन्त मोह मूढ़ संसार समुद्र में पड़े जीवों के परभव में सहायक एक निर्मल धर्म को छोड़कर कामभोग से अथवा धन स्वजनादि से थोड़ा भी सहायता नहीं मिलती है। इसलिए यदि आपको मेरी कोई भी योग्यता दिखती हो तो शीघ्र मुझे दीक्षा दो । परिणाम से भयंकर घरवास में रहने से क्या प्रयोजन है ? उसके बाद गुरू महाराज ने ज्ञान के उपयोग से उसकी योग्यता जानकर असंख्य दुःखों का समूह को क्षय करने वाली श्री भागवती दीक्षा दी। उसके बाद थोड़े दिनों में अनेक सूत्रार्थ का अध्ययन करके वह साधुजन के योग्य श्रेष्ठ क्रिया कलाप का परमार्थ का जानकार बना। फिर कालक्रम से शरीरादि के राग के अत्यन्त त्यागी, दृढ़ वैरागी और वाह्य सुख की इच्छा से रहित उसने जैन कल्प को स्वीकार किया। फिर जहाँ सूर्य का अस्त हो, वहीं कार्योत्सर्ग में रहता, शमशान, शून्य घर या अरण्य में रहते वायु के समान अप्रतिबद्ध और अनियत विहार से विचरण करते वह महान-आत्मा जहाँ शनिग्रह के सदृश स्वभाव से ही क्रूर और चिरवैरी कालसेन रहता था उस मण्डप में पहुँचा । उसके बाद वहाँ बाहर काउस्सग्ग में रहे। उसे वहाँ आकर पापी उस कालसेन ने देखा। इससे अपने पुरुषों से कहा कि--अरे ! यह वह मेरा शत्रु है कि उस समय इसने अकेले ही लीलामात्र में मुझे बाँधा था, इसलिए अभी जहाँ तक स्वयमेव यह विश्वास, शस्त्र रहित है, वहाँ तक सहसा उसके पुरुषार्थ के अभिमान को नाश करो।
यह सुनकर क्रोध के वश फडफड़ाते होंठ वाले उन पुरुषों द्वारा विविध शस्त्रों से प्रहार सहन करते वे मुनि विचार करने लगे कि हे जीव ! मारने