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श्री संवेगरंगशाला
शीघ्र मर गये हैं। यह सुनकर कोई अकथनीय तीन सन्ताप को वहन करते उन दोनों भाईयों ने जोर-शोर से रुदन किया-हा ! निष्ठुर यम ! तुने पिता के साथ हमारा मिलाप क्यों नहीं करवाया ? और पापी हम भी वहाँ क्यों रुके रहे ? इत्यादि विलाप करते और बारबार सिर फोड़ते उन्होंने इस प्रकार रुदन किया कि जिससे मनुष्य और मुसाफिर भी रोने लगे। उसके बाद आहार पानी को नहीं लेने से उनको परिजनों ने अनेक प्रकार से समझाया बुझाया तो वे चित्त बिना केवल परिजनों के आग्रह से सर्व कार्य करने लगे।
किसी समय उन्होंने दमघोष सूरि के पास संसार को नाश करने वाली श्री सर्वज्ञ कथित धर्म का श्रवण किया। इससे मरण, रोग, दुर्भाग्य, शोक, जरा आदि दुःखों से पूर्ण संसार को असार मानकर वैराग्य हुआ। उन दोनों भाईयों ने दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर लगाकर गुरू समक्ष निवेदन किया कि हे भगवन्त ! आपके पास दीक्षा को ग्रहण करेंगे। फिर गुरू ने सूत्रज्ञान के उपयोग से उनको भावि में अल्प विघ्न होने वाले हैं, ऐसा जानकर कहा कि हे महानुभावों ! आपको दीक्षा लेना उचित है, केवल स्त्रियों का तुम्हें महान उपसर्ग होगा, यदि प्राण का भोग देकर भी निश्चल तुम सम्यग् सहन करोगे तो तुम शीघ्र दीक्षा को स्वीकार करो और मोक्ष के लिये उद्यम करो। अन्यथा चढ़कर गिर जाना वह क्रिया हास्य का कारण होती है। उन्होंने कहा कि-हे भगवन्त ! यदि हमें अल्प भी जीवन के प्रति राग होता तो हम सर्व विरति को स्वीकार करने की भावना नहीं करते । अतः संसारवास से उदासीन आपके चरण-कमल का शरण स्वीकार किया है और विघ्न में भी हम निश्चल रहेंगे, अतः आप हमें दीक्षा दें। उसके बाद दीक्षा देकर गुरू महाराज ने सर्व क्रिया की विधि में कुशल बनाया, और सम्यगतया सूत्र अर्थ के श्रेष्ठ सिद्धान्त पढ़ाया। चिरकाल गुरूकुलवास में रहकर एक समय महासत्त्व वाले वे अपने गुरूदेव की आज्ञा प्राप्त कर अकेले विहार किया। फिर अनियत विहार की विधिपूर्वक विचरते सम्यग् उपयोग वाले जयसुन्दर मुनि किसी सयय अहिछत्रापुरी में पहुंचे। ___वहाँ उस सेठ की जिस पुत्री से विवाह हुआ था, वह पापिनी सोमश्री असती के आचरण से उस समय में गर्भवती हुई रहती थी कि यदि जयसुन्दर यहाँ आए तो उसकी दीक्षा का त्याग करवाकर अपना दुश्चरित्र छिपाऊँ । इधर भिक्षार्थ के लिए उस साधु ने नगर में प्रवेश किया और किसी तरह उसके समान दुराचारिणी पड़ोसी के घर में उसको देखा, शीघ्र घर में ले गई और