________________
श्री संवेगरंगशाला
૧૭૧
८. आरम्भवर्जन प्रतिमा :-पूर्व आराधना के साथ आठ महीने तक आजीविका के लिए पूर्व में आरम्भ किए भी सावध आरम्भ का स्वयं नहीं करे, नौकर द्वारा करवाये। ___. प्रेष्यवर्जन प्रतिमा :–नौ महीने तक पुत्र या नौकर के ऊपर घर का भार छोड़कर लोक व्यवहार से भी मुक्त श्रावक परम संवेगी पूर्व की प्रतिमाओं में कहे ये गुण वाला और प्राप्त हुए धन में सन्तोषी, नौकर आदि द्वारा भी पाप आरम्भ कराने का त्याग करना।
१०. उद्दिष्टवर्जन प्रतिमा :-दसवीं प्रतिमा के अन्दर कोई क्षोर से मुण्डन करावे अथवा कोई चोटी रखे । ऐसा गहस्थ दस महीने तक पूर्व की सर्व प्रतिमा का पालन करते जो उसके उद्देश -निमित्त से आहार, पानी आदि भोजन तैयार किया हो. उसे भी उपयोग न करे अर्थात् खाये नहीं । और स्वजन आदि निधान लेन-देन आदि के विषय में पूछे तो स्वयं जानता हो तो कहे, अन्यथा मौन रहे।
११. श्रमणभूत प्रतिमा :-ग्यारहवीं प्रतिमा में यह प्रतिमाधारी क्षौरकर्म अथवा लोच से भी मुण्डन मस्तक वाला रजोहरणादि उपकरणों-वेश को धारण कर और साधु समान होकर दृढ़तापूर्वक विचरण करे। केवल स्वजनों का ऐसा स्नेह किसी तरह खत्म नहीं होने से किसी परिचत गाँव आदि में अपने स्वजनों को देखने मिलने वह जा सकता है। वहाँ भी साधु के समान ऐषणा समिति में उपयोग वाला वह किया, करवाया और अनुमोदन बिना का निर्दोष आहार को ही ग्रहण करे, उसमें भी गहस्थ को वहाँ जाने के पहले तैयार किया हुआ भोजन, सूप आदि लेना उसे कल्पता है। परन्तु बाद में तैयार किया हुआ हो तो वह आहार उसे नहीं कल्पता है। भिक्षा के लिये गहस्थ के घर में प्रवेश करते-'अरे ! प्रतिमाधारी श्रमणोपासक गृहस्थ मुझे भिक्षा दो।' ऐसा बोलना चाहिए। ऐसा विचरते तुझे अन्य कोई पूछे कि–'तू कौन है ?' तब 'मैं श्रावक की प्रतिमा को स्वीकार करने वाला श्रावक हूँ।' ऐसा उत्तर देना चाहिए। इस तरह ग्यारहवीं प्रतिमा में उत्कृष्ट से ग्यारह महीने तक विचरन करे । जघन्य से तो शेष प्रतिमाओं एक दो दिन आदि का भी पालन कर सकता है। ये प्रतिमा पूर्ण हों तब धीरे से कोई आत्मा दीक्षा को भी स्वीकार करे, अथवा दूसरे पुत्र आदि के राग से गहस्थ जीवन स्वीकर करे, और घर रहते हुये भी वह प्रायः पाप व्यापार से मुक्त रहे । अपने धन का सामर्थ्य हो तो जीर्ण जैन मन्दिरों आदि का सार सम्भाल लेना चाहिए और अपना ऐसा