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श्री संवेगरंगशाला खुले हों और दांत की श्रेणी दिखती हो, वैसे पुनः पिता पुत्र से कहे कि-हे पुत्र ! मेरे ऊपर अति स्नेह से तू उलझन में पड़ा है, इसलिए ऐसा बोलता है, नहीं तो विवेक होने पर ऐसा वचन कैसे निकले ? हे पुत्र ! उत्तम लोगों के हृदय को सन्तोषकारी ऐसा मनुष्य जन्म में जो उचित कार्य है वह मैंने आज तक क्या नहीं किया ? वह तू सुन । योग्य स्थान पर व्यय करने से लक्ष्मी को प्रशंसा पात्र की, अर्थात् धन को प्रशस्त कार्य में उपयोग किया। सौंपे हए भार को उठाने में समर्थ स्कंध वाला तेरे जैसे पुत्र को पैदा किया, और अपने वंश में उत्पन्न हये पूर्वजों के मार्ग अनुसार पालन किया । ऐसा करने योग्य करके अब परलोक हित करना चाहता हूँ। और तूने जो पूर्व में मुझे बल-वीर्य पराक्रम की सफलता करने को बतलाया, वह भी योग्य नहीं है। क्योंकि-हे वत्स ! पुरुषों को धर्म करने का भी काल वही है कि जब समस्त कार्य करने का सामर्थ्य विद्यमान हो! क्योंकि इन्द्रियों का पराक्रम हो तब निष्पाप सामर्थ्य के योग से पुरुष सभी कर्तव्य करने में समर्थ हो सकता है । जब उन सब इन्द्रियों की कमजोरी के कारण निर्बल शरीर वाला, यहाँ खड़ा भी नहीं हो सकता, तब वह करने योग्य क्या कर सकता है ?
निश्चय में जो धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ को युवा अवस्था में कर सकता है, वही पुरुषार्थ बड़ी उम्र वाले को पर्वत के समान कठोर बन जाता है। इसलिए जैन वचन द्वारा तत्त्व के जानकार पुरुष को सर्व क्रियाओं में तैयार बल के समूह हो, तब ही धर्म का उद्यम करना योग्य है । वीर्य से साध्य तप भी केवल शरीर द्वारा सिद्ध नहीं होता, उसमें बल-वीर्य पराक्रम होना चाहिये। पर्वत को तो वज्र ही तोड़ सकता है, मिट्टी का टुकड़ा कभी भी नहीं तोड़ सकता है । वैसे सामर्थ्य रहित मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता है। अतः बलवीर्य वाला हूँ, तब तक बुद्धि को धर्म में लगाना चाहता हूँ। तथा वही विद्वान है, वही बुद्धि का उत्कृष्ट है और बल सामर्थ्य भी वही है कि जो एकान्त में आत्महित में ही उपयोगी बना है। इसलिए हे पुत्र ! मेरे मनोवाँछित कार्य में अनुमति देकर, तू भी स्वयं धर्म महोत्सव को करते, इस लोक के कार्यों को कर। क्योंकि-धीर पुरुष सद्धर्म क्रिया से रहित एक क्षण भी जाये तब प्रमादरूपी मजबूत दण्ड वाले लुटेरों से अपने को लूटा हुआ मानता है। जब तक अभी भी जीवन लम्बा समर्थ है, तब तक बुद्धि को सद्धर्म में लगा देना चाहिए, वह जीवन अल्प होने के बाद क्या कर सकता है ? अतः धर्म कार्य में उद्यम ही करना चाहिए, उसमें प्रमाद नहीं करे, क्योंकि मनुष्य यदि सद्धर्म में रक्त हो तो उसका जीवन सफल होता है। जो नित्य धर्म में रक्त है वह मनुष्य