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श्री संवेगरंगशाला
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हे भगवन्त ! महा खेदजनक बात है कि आपके दर्शन की बात तो दूर रही, परन्तु इतना सारा काल निष्पुण्यक मैंने कुछ भी आपको जाना ही नहीं, अथवा कल्पवृक्ष के दर्शन, छाया सेवा आदि का सम्भव तो दूर रहा, उसका परिचय भी निष्पुण्यक को कैसे हो सकता है ? पृथ्वी की सारी प्रजा को प्रगट रूप प्रकाश सूर्य करता है, परन्तु स्वभाव से तामसी पक्षियों का समूह (उल्लू) को हमेशा अविज्ञात-अदृष्ट ही होता है, वैसे मोह से एकान्त महा तामसी प्रकृति वाला और अत्यन्त निर्गुणी मुझे भी हे स्वामिन् ! आप भी किस तरह दिखने में आते ? हे प्रभ ! मोह से मालिन यह मेरा ही दोष है, आपका नहीं है । उल्लू नहीं देखता, फिर भी सूर्य तो प्रगट है ही, हे भगवन्त ! स्थान-स्थान पर अस्खलित, विस्तार से फैलती अति मनोहर कीर्ति के भण्डार आपको इस विश्व में कहाँ-कहाँ कौन-कौन नहीं जानता ? जो कि वर्षा ऋतु बिना शेषकाल में विचरते मुनि अपने गुणों को नहीं कहते, बोलते भी नहीं हैं, फिर भी परिचय हो जाता है क्योंकि गुण समूह की वह प्रकृति ही है, वह गुप्त नहीं रहती है। वर्षाकाल के कंदब पुष्प के विशिष्ट गन्ध से जैसे भ्रमर और भ्रमरियाँ सेवा करते हैं वैसे आप भी हे नाथ ! आपके गुण से लोगों द्वारा सेवाएँ होती हैं। अथवा अग्नि कहाँ प्रगट नहीं होती ? अथवा चन्द्र कहाँ प्रगट नहीं होता ? वैसे आप जैसे सद्गुणी पुरुष कहाँ प्रगट नहीं होते हैं ? अर्थात् आप सर्वत्र ही प्रगट होते हैं। अग्नि तो पानी होने पर प्रगट नहीं और चन्द्र भी बादल से ढक जाने से नहीं दिखता है। परन्तु हे प्रभु ! आप तो सदा सर्वत्र प्रकाश को करते हैं, और अत्यन्त मनोहर भी पूनम का चन्द्र सूर्य विकासी कमल के वनों को आनन्द नहीं देता है, किन्तु आप तो हे भगवन्त ! महाप्रशम आदि श्रेष्ठ गुणों के योग से सर्व जीवराशि को भी परम सन्तोषकारी होते हैं। अधिक क्या कहूँ ? आज मैंने स्वामी का-गुरू का सच्चा सन्मान किया है, आज ही मेरी भवितव्यता अनुकूल हुई, आज मेरी वृद्धि हुई और आज सारे ओच्छवों का मिलन हुआ, आज का दिन भी मेरा कृतार्थ हुआ और आज ही प्रभात मंगलमय बना, आज ही चित्त में आनन्द हुआ, आज ही परम बन्धु श्री अरिहंत देव का संबंध हुआ, आज ही मेरा जन्म कृतार्थ हुआ, आज ही मेरे नेत्र सफल हुए, आज ही मेरे इच्छित कार्य की सम्यक् प्राप्ति हुई, आज ही मेरी पुण्य राशि सफल हुई, और आज ही लक्ष्मी ने वांछारहित सद्भावनापूर्वक मेरे सामने देखी, क्योंकिहे पापरज को नाश करने वाले मुनीन्द्र ! मैं आज अत्यन्त पुण्योदय से प्राप्त होने वाले निष्पापमय आप श्री के चरण-कमल को प्राप्त किये हैं। इस तरह