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श्री संवेगरंगशाला
से पृथ्वी तल का स्पर्श करता गुरूदेव के चरणों में गिरकर नमस्कार करे । उसके बाद उनके शरीर की सेवा करके उनके पास से सिद्धान्त के रहस्यों को सुने और यही गुरु भगवन्त हैं, इन्हीं को ही मैंने स्वप्न में देखा था, ये तो उत्तम फल वाले महान् वृक्ष स्वरूप हैं, स्वप्न में देखा था वे मुझे समुद्र में हाथ का सहारा देने वाले यही गुरूदेव हैं । ऐसा चिन्तन मनन करते समय देखकर गुरू महाराज को निवेदन करे कि
हे भगवन्त ! अति विशाल फैला हुआ मिथ्यात्व रूपी जल प्रवाह से परिपूर्ण प्रत्यक्ष दिखता महा भयंकर मोह के सैंकड़ों चक्करों (आवर्त ) से युक्त सतत् मृत्यु जन्म रूपी बड़ी तरंगों से क्षुब्ध किनारा वाला प्रति समय घूमते हुए अनेक रोग, शोकादि मगर, सर्पों से युक्त, स्वभाव से ही गम्भीर गहरा, स्वभाव से ही अपार किनारे बिना का, स्वभाव से ही भयंकर और किनारा रहित इस संसार समुद्र को पार उतरने के लिए आपके द्वारा प्रवज्या रूपी नाव में बैठकर हे मुनिनाथ ! मैं पार उतरने के लिए आप श्री के हाथ का सहारा चाहता हूँ । फिर खिली हुई अति करुणा से भरी हुई पपड़ी वाली और अन्तर में उछलते अनुग्रह से विकास वाली दृष्टि से अनुग्रह करते हो । इस तरह समस्त तीर्थों के जल स्नान के समान उसके पाप मैल को धोते धर्म गुरू मधुर वाणी से उसे इस प्रकार उत्तर दे–अरे, भो ! देवानु प्रिय ! समस्त संसार स्वरूप के जानकार, शत्रु के पक्षपाती, सर्व विषयों की अभिलाषा के त्यागी, आशारूपी कीचड़ से रहित, निर्मल चित्त वृत्ति वाले, प्रमाद को जीतने वाले, प्रतिक्षण बढ़ते प्रशम रस को पीने की तृष्णा वाले, और शास्त्र विधि ज्ञान क्रिया से उत्तम मरणकाल का परम ओच्छव का स्थान रूप मानने वाले तुझे इस समय पर अब दीक्षा लेना वह अत्यन्त योग्य है । हे महायश ! उत्साही तू केवल पूर्व में स्वीकार किये व्रत गुणादि के अतिचार की आलोचना करके फिर मन से इच्छनीय, निर्दोष प्रवज्या को स्वीकार कर । चिरकाल सेवन किया हुआ उत्तम गृहस्थ धर्म का फल गृहस्थ इस तरह दीक्षा स्वीकार करे अथवा मरण समय संथारा रूपी दीक्षा को स्वीकार करके प्राप्त करता है । और उस दीक्षा की अथवा संथारा की प्राप्ति न हो तो भी उत्तम मुनि के समान सर्व संग सम्बन्धों को छोड़कर सामायिक - समभाव में युक्त बना वह भक्त परिज्ञा अनशन को स्वीकार करता है । यह सुनकर 'आपकी हित शिक्षा को मैं चाहता हूँ ।' ऐसा कहने द्वारा गुरू की हित शिक्षा को अति मानपूर्वक चिरकाल की इच्छा पूर्ण होने से वह कुछ खेदपूर्वक कहे कि :
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