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श्री संवेगरंगशाला
१८५ मरा हुआ भी जगत में जीता ही है, परन्तु जो पाप के पक्ष वाला है, वह जीता हुआ भी मरे हुए के समान मानना। अतः हे पुत्र ! जन्म, जरा और मृत्यु का नाश करने वाला धर्मरूपी रसायण सदा पीना चाहिए, कि जिसको पीने से मन की परम शान्ति मिलती है। इसलिए हे पुत्र ! प्रयत्नपूर्वक धर्म ध्यान से मन को उसके आचरण से मनुष्य जन्म को और प्रशम प्राप्त कर श्रुत ज्ञान को प्रशंसनीय बना ! इत्यादि वचनों से प्रतिबोध देकर पुत्र पिता को परलोक के हित की प्रवृत्ति के लिए आज्ञा दे। इस तरह पुत्र प्रतिबोध नामक चौथा अन्तर द्वार कहा । अब सुस्थित घटना अर्थात् सदाचारी मुनियों की प्राप्ति नामक पांचवाँ अन्तर द्वार कहा।
पांचवाँ सुस्थित घटना द्वार :-इसके पश्चात् महा मुश्किल अनिच्छा से पुत्र ने आज्ञा दी। फिर प्रति समय उत्तरोत्तर बढ़ते विशुद्ध परिणाम वाला और 'अब हमारा नाश करेगा' ऐसी अपनी विनाश की शंका से राग द्वेष शत्रुओं ने छोड़ दिया, तथा योग्य समझकर शीघ्र प्रशम से स्मरण करते, पूर्व में बन्धन किए कर्मरूपी कुल पर्वतों को चकनाचूर करने में वज्र समान सर्व विरती रूपी महा चारित्र की आराधना के लिए उद्यमशील, चित्त से प्रार्थना करते अर्थात् चारित्र के लिए उत्साही चित्त वाला, संसार में उत्पन्न होती समस्त वस्तुओं विगुणता का विचार करते तथा कर्म की लघुता होने से शुभ स्वप्नों को देखता है। जैसे कि 'निश्चय आज मैंने पवित्र फल, फूल और शीतल छाया वाला श्रेष्ठ वृक्ष को प्राप्त किया, और उसकी छाया आदि से मैंने अति आश्वासन प्राप्त किया तथा किसी महापुरुष ने मुझे स्वभाव से ही भयंकर अपार समुद्र में से हाथ का सहारा देकर पार उतारा, इत्यादि स्वप्न देखने से हर्षित रोमांचित वाला वह अधिगत पुरुष आश्चर्यपूर्वक जागकर इस प्रकार चिन्तन करे कि-ऐसा स्वप्न मैंने कभी देखा नहीं, सुना नहीं और अनुभव भी नहीं किया है, इससे मैं मानता हूँ कि अब मेरा कुछ कल्याण होगा, उसके बाद कालक्रम से विचरते हये किसी भी उसके पुण्य प्रकर्ष से आकर्ष होकर आए हो वैसे, पूर्व में जिसकी खोज करता था वैसे सुस्थित-सुविहित आचार्य महाराज को आए हए हैं, ऐसा सुनकर वह विचार करता है किउनके आने से निश्चय अब मेरा क्या-क्या कल्याण नहीं होगा ? अथवा सिद्धान्त के कौन से रहस्यों को मैं नहीं सुनंगा ? और पूर्व में सुने हए तत्त्वों को भी अब मैं स्थिर परिचित करूँगा। ऐसा चिन्तन करते हर्ष के भार से परिपूर्ण अंग वाला गुरू महाराज के पास जाये और आनन्द के आँसू से भरे नेत्रों की दृष्टि वाला, ऐसी दृष्टि से दर्शन करते तीन प्रदक्षिणा देकर, फिर मस्तक