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श्री संवेगरंगशाला
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पराक्रम में भी कमी नहीं आती, तब तक मैं तेरी अनुमति पूर्वक परलोक का हितमार्ग स्वीकार करूँ । कान को सुनने में कड़वा और वियोग सूचक वाणी को सुनकर पर्वत समान महान् मुदगर से नाश होता हो, इस तरह पत्थर गिरता हो वैसे मूर्छा से आँखें बन्द वाला, तमाल वृक्ष समान श्याम मुख कान्ति वाला, शोक से बहते आँसू वाला पुत्र शोक से प्रगट हुये टूटे-फूटे अक्षर वाली भाषा से अपने पिता को कहा है कि - हे तात् ! अकाल में उल्कापात समान ऐसे वचन क्यों बोल रहे हैं ? इस जीवन में अभी प्रस्तुत संयम का कोई भी समय प्राप्त नहीं हुआ है, इसलिए हे तात् ! इस विचार से अभी रुक जाएँ ।
तब पिता उसे कहता है कि - हे पुत्र ! अत्यन्त विनय वाला बनकर तू सफेद बाल वाले मेरे मस्तक को क्यों नहीं देखता ? खड़खड़ाती हड्डी के समूह वाली मेरी यह कायारूपी लकड़ी को और अल्पमात्र प्रयास में ही चलायमान होती मेरी दाँत की पंक्ति को भी क्यों नहीं देखता ? हे पुत्र ! क्या देखने में निर्बल तेजहीन बनी दोनों आँखों को और लावण्य शून्य झुरझुरी वाला शरीर की चमड़ी को भी तू क्यों नहीं देखता है ? और हे पुत्र ! पश्चिम दिशा के आश्रित सूर्य के बिम्ब के समान तेज रहित परम पराक्रम से साध्य कार्यों के लिये प्रकटरूप अशक्त भ्रष्ट हुआ श्रेष्ठ शोभा वाले मेरे इस शरीर को भी क्या तू नहीं देखता ? कि जिससे प्रस्तुत प्रयोजन के लिये अयोग्य कहता है । जैन धर्म युक्त मनुष्य जीवन प्राप्त कर गृहस्थ को निश्चय रूप यही उचित है कि जो अप्रमत्त जीवन जीना और अन्त में अभ्युद्यत मृत्यु से मरना है । अरे ! मन को वश करके जिसने इन्द्रियों का दमन नहीं किया, उसका प्राप्त हुआ मनुष्य जीवन भी निष्फल गया है । इसलिए हे पुत्र ! प्रसन्न होकर अनुमति दे कि जिससे मैं अब सत्पुरुषों के आचार अनुरूप मार्ग का आचरण करूँ । यह सुनकर पुत्र कहा कि - हे तात् ! तुम्हारा तीन लोक को आश्चर्य उपजाने वाला शरीर का सुन्दर रूप कहाँ है ? और उसका नाश करने में कारणभूत यह आपकी भावना कहाँ ? यह आपकी अति कोमल काया चारित्र की कष्टकारी क्रिया को कैसे सहन करेगा ? तीव्र धूप को तो वृक्ष सहन करते हैं, कमल की माला नहीं करती है, वही पण्डित पुरुष है जो निश्चय वस्तु जहाँ योग्य हो उसे वहाँ करते हैं, क्या कोई बालक भी लकड़ी के कचड़े में आग नहीं लगाता है ? इस प्रकार निश्चय आपका यह आचरण मनोहर लावण्य और कान्ति से शोभित आपके शरीर का नाश करने वाला होगा । इसलिए हे तात् ! अपने बल-वीर्य - पुरुषार्थ और पराक्रम के क्रम से उस कार्य को आचरणपूर्वक सफल करके कष्टकारी प्रवृत्ति को स्वीकार करना । तब धीरे से हँसते पूर्वक सुन्दर दो होंठ कुछ