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श्री संवेगरंगशाला
१५७ पूर्वक पुत्र की अनुमति प्राप्त कर योग्य समय निष्पाप संलेखनापूर्वक आराधना का कार्य करूँगा। इस तरह इसभव और परभव हित चिन्ता का प्रथम द्वार कहा । अब पुत्र शिक्षा नामक दूसरा द्वार अल्पमात्र कहते हैं।
दूसरा पुत्र को अनुशास्ति द्वार :-पूर्व में विस्तारपूर्वक कहा हुआ उभय लोक का हित करने वाला, धर्म को करने की मुख्य परिणाम वाला, और इससे घरवास को छोड़ने की इच्छा वाला, सामान्य गृहस्थ या राजा जब प्रभात में जागृत हो, पुत्र आदि सर्व आदर से चरण में नमस्कार करें, तब उसे अपना अभिप्रायः बतलाने के लिये इस प्रकार कहे हे पुत्र ! यद्यपि स्वभाव से ही तू विनीत है, गणों का रागी और विशिष्ट प्रवृत्ति वाला है, इसलिए तुझे कुछ उपदेश देने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी माता-पिता ने पुत्रादि को हितोपदेश देना, वह उनका कर्तव्य होने से आज अवश्य कुछ तुझे कहा है । हे पुत्र ! सद्गुणी भी, बुद्धिशाली भी, अच्छे कुल में जन्म हुए भी और मनुष्यों में वृषभतुल्य श्रेष्ठ मनुष्य भी, भयंकर यौवनरूपी ग्रह से बुद्धिभ्रष्ट बना शीघ्र नाश होता है। क्योंकि-इस यौवन का अन्धकार चन्द्र, सूर्य, रत्न और अग्नि के प्रकाश से लगातार रोकने पर भी अल्प भी नहीं रुकता है, परन्तु अतिरिक्त वह अन्धकार फैलती रात में जैसे तारे खिलते हैं, वैसे जीवन में कुतर्क रूपी तारे प्रगट होते हैं। विषय की विचित्र अभिलाषाएँ रूपी व्यतरियों का समूह विस्तार होने से दौड़ा-दौड़ करते हैं । अवसर मिलते ही उन्माद रूपी उल्लू का समूह उछलता है, कलुषित बुद्धिरूपी चमगादड़ का समूह सर्वत्र जाग उठता है,
और अनुकूलता होने से प्रमादरूपी खद्योत (जुगनूं) उसी समय विलास करने लगते हैं और कुवासनाएँ रूपी व्यभिचारिणी का समूह निर्लज्ज होकर दौड़ भाग करती हैं। तथा हे पुत्र ! शीतल उपचार से भी उपशम न हो ऐसा दर्प रूपी दाह ज्वर जल स्नान से भी नहीं शान्त होने वाला, तीव्र रागरूपी मैल का विलेपन, मन्त्र-तन्त्र या यन्त्र से भी नहीं रुकने वाला, विषयरूपी विषविकार और अंजन आदि के प्रयोग से भी नहीं रुकने वाला, लक्ष्मी का अभिमान भयंकर अन्धकारमय जीवन बना देता है और हे पुत्र ! मनुष्यों का रात्री पूर्ण होने पर नहीं रुकने वाला विषय सुखरूप सन्निपात से उत्पन्न हुई गाढ़ निद्राबेसुध भी बन जाता है । हे पुत्र ! तू भी तरुण, उत्कृष्ट सौभाग्य से युक्त शरीर वाला और बचपन से भी प्रवर ऐश्वर्य वाले, अप्रत्तिम रूप और भुजा बल से शोभित तथा विज्ञान और ज्ञान को प्राप्त करने वाला है। ऐसे गुण वालों से तू इस गुणों से ही लूटा न जाए ऐसी प्रवृत्ति करना, क्योंकि ये एक-एक गुण भी दुविनय करने वाले हैं तो सभी एकत्रित होकर क्या न कर बैठे ? इस