________________
श्री संवेगरंगशाला
१६१
बाँधकर आठ रत्नों की गठरी समान दूसरी कृत्रिम गठरी बना कर वज्र को देकर मैं रात्री में चला जाऊँगा, ऐसा विचार कर वह पापिष्ठ भय से जब दो गठरियों को शीघ्र बाँधने लगा, उसी समय वज्र वहाँ आ पहुँचा और उसने पूछा - हे मित्र ! तू यह क्या करता है ? यह सुनकर क्या इसने मुझे देखा ? ऐसे शंकाशील बना, फिर भी कपट करने में चतुर उसने कहा- हे मित्र ! कर्म की गति कुटिल के समान विचित्र है । विधाता के स्वच्छी विलास चित्त में भी नहीं आता है, इससे स्वप्न में भी नहीं दिखता, ऐसा कार्य भी अचानक दैव योग से हो जाता है । ऐसा सोच-विचार कर मैंने यह दो रत्न गठरी तैयार की है क्योंकि एक स्थान पर रखी हुई किसी कारण से सारा हाथ में से विनाश नहीं होता ? इसलिये अपनी चार रत्नों की गठरी तू अपने हाथ में रख और दूसरी मैं रखूं । ऐसा करने से अच्छी रक्षा होगी। ऐसा कहकर मोहमूढ़ हृदय वाला उसने भ्रम से सच्चे रत्नों की गठरी वज्र के हाथ में और दूसरी कृत्रिम अपने हाथ में रखी । उसके बाद दोनों वहीं सो गये, फिर जब राह देखते मुसीबत से मध्य रात्री हुई तब वह पत्थर की गठरी लेकर क्षोमिल जल्दी चल दिया ।
सात योजन चलने के बाद जब वह रत्न की गठरी खोली तब उसके अन्दर पूर्व में अपने हाथ से बाँधे हुये पत्थर के टुकड़े देखे । इससे वह बोला कि- दो धार वाली तलवार समान स्वच्छंदी, उच्छू खल और विलासी स्वभाव वाला हे पापी दैव ! तूने मेरे चिन्तन से ऐसा विपरीत क्यों किया ? निश्चय ही पूर्व जन्म में अनेक पाप करने से यह दुःखदायी बना है, इसे मैंने अपने मित्र के लिए किया था परन्तु सफल नहीं हुआ, वह तो मेरे लिए ही हुआ है । मैं मानता हूँ कि - शुद्ध स्वभाव वाले उस मित्र की ठगाई करने से वह पाप इस जन्म में ही निश्चय रूप में उदय आया है । ऐसा बोलते शोक के भयंकर भार से सर्वथा खिन्न और थके हुए शरीर वाला, क्षणभर तो किसी बंधन बाँधा हो, या वज्रघात हुआ हो, ऐसा हो गया । फिर भूख से अत्यन्त पराभव प्राप्त करते, मार्ग में चलने से अत्यन्त थका हुआ और भिक्षा के लिये घूमने में भी अशक्त बना उसने एक घर में प्रवेश किया । उस घर की स्त्री को उसने कहाहे माता ! आशा रूपी साँकल से टिका हुआ मेरा प्राण जब तक है तब तक कुछ भी भोजन दो । अर्थात् यदि भोजन नहीं मिलेगा तो अब मैं जीता नहीं रहूँगा । उसके दीन वचनों को सुनने से दयालु बनी वह स्त्री उसे आदरपूर्वक भोजन देने लगी, लेकिन उसी समय उसका मालिक वहाँ आया और उसे भोजन करते देखकर क्रोध से लाल अति क्षुब्ध बना नेत्र वाले उसने कहा