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श्री संवेगरंगशाला
का पुत्र था । उस ताराचन्द्र को अपने प्राण समान कुरुचन्द्र नामक मित्र था । युवराज पद देने की इच्छा वाले राजा ने उस ताराचन्द्र को अन्य कुमारों से सर्व श्रेष्ठ जाना । उसके पश्चात् राजा के पास बैठी हुई सौतेली माता ने राजा के स्नेहल भी विषाद युक्त दृष्टि से ताराचन्द्र के सामने देखते हुए देखा, 'अपने पुत्र को राज्य प्राप्ति में ताराचन्द्र विघ्न रूप बनेगा ।' ऐसा मानकर उसने उस को मारने के लिए एकान्त में गुप्त रूप भोजन में कार्मण मिलाकर वह भोजन उसे दिया । ताराचन्द्र ने किसी प्रकार के विकल्प बिना वह भोजन खा गया । फिर उस भोजन में से विकार उत्पन्न हुआ इससे ताराचन्द्र का रूप, बल और शरीर को नाश करने वाली महाव्याधि उत्पन्न हुई । उससे पीड़ित, निर्बल और दुर्गंधनीय बने शरीर को देखकर अत्यन्त शोकाग्रस्त बना ताराचन्द विचार करने लगा कि - निर्धन, बड़े रोग से पीड़ित हो और अपने स्वजनों के पराभव से अपमानित हुआ सत्पुरुषों को या तो मर जाना चाहिए अथवा अन्य देश में जाना योग्य है । इससे विनष्ट शरीर वाला और नित्यखल मनुष्यों की विलासी कटाक्ष वाले अपूर्ण नजर देखते मुझे अब एक क्षण भी यहाँ रहना योग्य नहीं है । इससे अपने परिवार को कहे बिना ही वह अकेला पूर्व दिशा की ओर वेग से चल दिया । अत्यन्त दीन मन वाला वह धीरे-धीरे चलते क्रमशः अन्यान्य पर्वत, खीन, नगर और गाँव के समूह को देखता हुआ सम्मेत नामक महापर्वत के नजदीक एक शहर में पहुँचा और वहाँ लोगों से पूछा कि- इस पर्वत का क्या नाम है ? लोगों ने कहा - हे भोले ! दूर देश से आया है अजान तू जो सूर्य के समान अति प्रसिद्ध भी इस पर्वत का नाम पूछ रहा है तो वर्णन सुन :
यह सम्मेत नाम का महा गिरिराज है, जहाँ भक्ति के समूह से पूर्ण सुर असुरों के द्वारा स्तुति की जाती श्री जिनेश्वर भगवान ने शरीर का त्याग करके निर्वाण पद प्राप्त किया है । उस पर्वत मार्ग में आते भव्यों को पवन से उछलते वृक्षों के पत्र रूप हाथ द्वारा और पक्षियों के शब्द रूप वचन से सब आदरपूर्वक आराधना के लिए निमंत्रण करते हैं । जहाँ नासिकाग्र भाग में आखों का लक्ष्य स्थापन कर, अल्प भी शरीर सुख की चित्त वाले योगियों का समूह विघ्न बिना परम अक्षर हैं । जहाँ भूमि के गुण प्रभाव से अनेक दुष्ट प्राणी भी क्रीड़ा करते हैं, और मुग्ध भी वहाँ विषाद बिना प्रसन्नता से प्राण का त्याग रूप अनशन करके देव रूप बनते हैं, तथा उस गिरि के अति रमणीयता रूप
पैर छोड़कर परस्पर
अपेक्षा बिना के एकाग्र
(ब्रह्म) का ध्यान करते