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श्री संवेगरंगशाला
सेलक सरि की कथा सेलकपुर नगर में पहले सेलक नामक राजा था। उसकी पद्मावती रानी और उनका मंडुक नाम से पुत्र था। बच्चा पुत्र सूरीश्वर की चरण सेवा करते राजा ने जैन धर्म स्वीकार किया था और वह न्याय पूर्वक निरवध राज्य का सुख भोगता था। एक समय था बच्चा पुत्र सूरि के शिष्य पट्टधर शुक सूरि जी विहार करते उस नगर में पधारे, और मुनियों के उचित मृगवन नामक उद्यान में स्थिरता की, उनका आगमन जानकर राजा वंदनार्थ वहाँ आया। तीन प्रदक्षिणा देकर उनके चरणों में नमस्कार करके हर्षपूर्वक अंगवाला राजा धर्म सुनने बैठा। मुनिपति आचार्य श्री ने भी उसे संसार प्रतिपरम निर्वेद कारक, विषयों के प्रति वैराग्य प्रगट करने में परायण, संमोह को नाश करने वाली, संसार में प्राप्त हुई सारी वस्तुओं के दोषों को बतलाने में समर्थ धर्मकथा कान को सुख देने में मधुर वचन को विस्तारपूर्वक लम्बे समय तक कहा । इससे राजा प्रतिबोध हुआ और अत्यन्त हर्ष से उछलते रोमांचित वाले उसने गुरु चरणों में नमस्कार करके इस प्रकार कहा-हे भगवन्त ! मेरे पुत्र को राज्य ऊपर बैठा कर, राज्य को छोड़कर उसी समय आपके पास मैं दीक्षा स्वीकार करूँगा। गुरुदेव ने कहा-हे राजन् ! संसार स्वरूप को जानकर तुम्हारे सदृश यह करना योग्य है, इसलिए अब इस संसार विषय में थोड़ा भी राग नहीं करना।
__ इस तरह गुरु महाराज से प्रतिबोधित हुआ वह राजा अपने घर गया और मंड्डुक नामक श्रेष्ठ कुंवर को अपने राज्य पर स्थापन किया। उसके बाद पंथक आदि पांच सौ मंत्रियों के साथ राजा सुन्दर श्रृंगार करके एक हजार पुरुषों से उठाई हुई पालकी में बैठा, और गुरु महाराज के पास जाकर सर्व संग के राग को छोड़कर राजा ने दीक्षा स्वीकार की तथा प्रतिदिन संवेग पूर्वक उस धर्म क्रिया में उद्यम करने लगा। फिर उस मुनि ने अनुक्रम से ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, और दुष्कर तप करने में परायण बनकर वायु के समान अप्रतिबद्ध विहार से पृथ्वी ऊपर विचरने लगे। फिर शक सरि जी ने पंथक आदि पांच सौ मुनियों के गुरु सेलक मुनि को सूरिपद पर स्थापन कर के स्वयं बहुत काल तक विहार करके सुरासुरों से पूजित वे एक हजार साधुओं सहित पुंडरिक नामक महा पर्वत (पंडरिकगिरि) ऊपर अनशन करके मोक्ष गये। फिर उस सेलक सूरी का शरीर विविध तप से और विरस आहार पानी से केवल हाडपिंजर का अतिदुर्बल शरीर बन गया, और रोग भी थे फिर भी