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श्री संवेगरंगशाला
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यह समाचारी को जानकर जो विधिपूर्वक अमल करते हैं, उन्हीं को ही इस विषय में कुशल जानना और अन्य सर्व को अकुशल जानना । इस तरह जो कहा है उस विधि अनुसार उस देश में विचरते गृहस्थ अपने और घर के जीवन में धर्म गुणों की सविशेष वृद्धि करता है । वह इस प्रकार से द्रव्यस्तव और भावस्तव आराधना में सविशेष रक्त श्रावक वर्ग को देखकर स्वयं भी उसे सविशेष करने में तत्पर होता है, और उस आने वाले को स्थान-स्थान पर ऐसी क्रिया करने में रक्त प्रवृत्ति करते देखकर धर्म परायण बने अन्य जीवों में भी वह शुभ गुण विकासमय बनता है । और उसको देखकर अश्रद्धालु को भी प्रायः धर्म में श्रद्धा उत्पन्न होती है और स्वयं श्रद्धालु हो वह जीव पुनः वैसी प्रवृत्ति करने में उद्यमशील होता है, अस्थिर हो वह स्थिर होता है, तथा स्थिर हो वह अधिक गुणों को ग्रहण करता है, अगुणी भी गुणवान बनता है और गुणी गुणों में अधिक दृढ़ बनता है । इस तरह श्री जिनेश्वर भगवान का जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान, निर्वाण जहाँ-जहाँ हुआ हो उन-उन अति प्रशस्त तीर्थों में श्री सर्वज्ञ भगवन्तों को वंदन करे और सुस्थिर गुरु की खोज करे, वहाँ तक तीर्थयात्रा - परिभ्रमण करे कि जहाँ तक परम श्रेष्ठ आचार वाले गुरु की प्राप्ति हो, फिर ऐसे गुरु देव की प्राप्ति होते हर्ष से उछलते रोमांचित रूप कंचुक वाला वह स्वयं को मिलना था वह मिल गया और समस्त तीर्थ समूह से पाप धुल गये, ऐसा मानते विधि - पूर्वक उस गुरु भगवन्त को अपने दोषों को सुनाये । उसके बाद गुरु देव के कहे हुए प्रायश्चित को सम्यग् भाव से स्वीकार कर ऐसा चिन्तन करे कि अहो ! पाप से मलिन मुझे भी निष्कारण करूणा समुद्र इन आचार्य भगवन्त ने प्रायश्चित रूप जल से शुद्धि करके परत विशुद्धि किया है । निश्चय ही इस गुरुदेव का वात्सल्य इतना अधिक है कि इनके सामने माता, पिता, बन्धु, स्वजन आदि किसी को भी नहीं है । इस प्रकार वात्सल्य भाव से जगत में विचरते हैं, अन्यथा कदापि नहीं देखे, नहीं सुने, परदेश से आये हुए यह महा भाग गुरुदेव इस तरह प्रिय पुत्र के समान मेरा सन्मान कैसे करते ? उसके बाद परमानंद से विकसित आँखों वाला वह चिरकाल सेवा करके, उनके उपदेश को स्वीकार करे, गुरु महाराज को अपने क्षेत्र की ओर विहार करने का निमन्त्रण करे । ऐसा करने से पुण्य के समूह से पूर्ण इच्छा वाला किसी उत्तम श्रावक को निश्चय ही निर्विघ्न से इच्छित सिद्धि होती है । और इस तरह यात्रार्थ प्रस्थान करने वाले किसी को संभव है क्योंकि सोपक्रम आयुष्य से 'भाग्य योग' से बीच में मृत्यु हो जाए तो तीर्थादि पूजा बिना भी शुभ ध्यान रूपी गुण से दुर्गता नारी के समान तीर्थयात्रा के साध्य रूप फल की सिद्धि होती है । वह इस प्रकार :