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श्री संवेगरंगशाला
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करता है-अनेक प्रकार का बनता है पुनः तू ऐसा बनकर स्वयं दुःखी होता है, इसलिए हे चित्त ! अन्य सब वस्तु की चिन्ता को छोड़कर श्रेष्ठ एक भी किसी वस्तु का चिन्तन कर कि जिससे तू परम शान्ति प्राप्त करे । हे मन! मदोन्मत्त हाथी के समान तु वैसा कर कि-स्वाध्याय के बल से जैसे मेरी संसार रूपी अटवी का मूलभूत कर्मरूपी अटवी टूट जाए और वह टूटते ही भव वन में ताजे पत्ते तुल्य मेरे रागादि सूख जाते ही पंखी तुल्य मेरे कर्म उड़कर कहीं जाते रहे और उसके पुष्पों समान मेग जन्म जरा मरण सर्वथा नाश हो तथा उसके फल तुल्य मेरे दुःख भी शीघ्र क्षीण हो। हे मन ! यदि तू दुःखरूपी फलों को देने वाली कर्मरूपी जल के सिंचन से बढ़ती हुई संसार रूपी गहरी लता को ध्यान रूपी अग्नि से जलाए तो वह उत्पन्न नहीं होगी।
यदि त लक्ष्मी से अभिमान नहीं करता है, रागादि अन्त रंग शत्रओं को भी वशीभूत नहीं होता है, स्त्रियों से आकर्षित नहीं होता है, यदि विषयों से लोलुपता नहीं रखता है, सन्तोष को नहीं छोड़ता, इच्छाओं को आदर नहीं देता, और पाप पक्ष का विचार नहीं करता, तो हे चित्त ! तुझे ही मेरा नमस्कार, तू ही मेरा वन्दनीय है। तथा हे मन ! यदि त आसक्ति के त्याग से राग को, अप्रीति को त्याग से, द्वेष को सत्ज्ञान से, मोह को क्षमा से, क्रोध को, मृदुता प्रगट करके मान को, सरलता से माया को, और सन्तोष गुण से लोभ को जीते और यदि त नित्य बलपूर्वक भी इन्द्रियों के समूह को सन्तोष करता है, यदि जीव के साथ प्रीति करने के लिए अप्रीति को खत्म करता है, असंयम में अरति को और संयम में रति करता है, यदि संसार से ही भय प्राप्त करता है पाप की ही घृणा करता है, यदि वस्तु स्वरूप का विचार कर हर्ष शोकादि नहीं करे, यदि वचन का उच्चारण करने में नित्य सत्य का ही विचार करे, तथा धर्म गुणों की यथाशक्ति सम्यक् आसक्ति करे, काल के अनुरूप समय अनुसार सुन्दर क्रिया में तत्पर उत्तम साधुओं का सत्कार करना, दीन-दुखियों के प्रति करूणा करनी, और यदि पापियों की अपेक्षा करता है तो हे मन ! अन्य निष्फल क्रियाओं को बनने का मुझे कोई प्रयोजन नहीं है, तेरी कृपा से मुझे मुक्ति हथेली में ही है। हे मन ! जैसे निःश्वासन पर्वत से निर्मल भी दर्पण शीघ्र मनिन होता है जैसे अति विशाल धएँ से अग्नि की शिखा काली श्याम हो जाती है, जैसे उड़ती रेत के समूह से चन्द्र भी निस्तेज हो जाता है वैसे तू उज्जवल है तो भी कुवासना से मलिन होता है। तूने आज तक आत्मा को अपने नियम में लेकर राग-द्वेषादि का निग्रह नहीं किया, शुभ ध्यानरूपी अग्नि से कर्मरूप विशाल ईन्धन को नहीं जलाया, विषयों में से खींचकर