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श्री संवेगरंगशाला
इन्द्रियों के समूह को धर्म मार्ग में नहीं जोड़ा, तो हे चित्त ! क्या तुझे मुक्ति के सुख की भी इच्छा नहीं है ? हे मन ! हाथियों को सजाना नहीं है, घोड़ों की कतारों को भगाना नहीं है, आत्मा को प्रयास नहीं करना, तलवार का भी उपयोग नहीं करना, परन्तु शुभध्यान से ही राग आदि अन्तरंग शत्रुओं को खत्म करता है, फिर भी तू उनका पराभव क्यों सहन करता है ? गुरु महाराज के बताये उपाय से प्रथम आलम्बन के आधार पर मन, वचन और काया के योग सर्व विघ्नों से रहित होता है, तथा प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करके, बाह्य विषयों की चिन्ता के व्यापार छोड़कर यदि तू निरालम्बन परम तत्त्व में लीन बनेगा तो हे चित्त ! तू संसार चक्र में परिभ्रमण नहीं करेगा।
हे मन ! यदि तू प्रकृति को ही चल स्वभाव वाला, विषयाभिलाषा में वेग वाला, दुर्दान्त ये इन्द्रिय रूप घोड़ों के समूह को विवेकरूपी बागडोर से वश करके स्वाधीन करेगा तो रागादि शत्र नहीं उछलते अन्यथा हमेशा फैलते निरंकुश उनसे तेरा पराभव होगा। जैसे वर्षा करते मेघ द्वारा और हजारों नदियों प्रवेश द्वारा भी समुद्र में उछाल या जोश नहीं आता, और उस मेघ और नदियों के अभाव में निराश भी नहीं होता है, तो तुझे जो मिलने वाला था वह मिल गया तथा उत्तम बना हुआ वह तेरा अति कृतार्थ हुआ है ऐसा समझ क्योंकि दुष्कर तप आदि करने वाले भी मुनि भोगादि की इच्छा रखते हैं उसका कल्याण नहीं है। और 'योग की साधना का रागी घर को छोड़कर वन में मोक्ष की साधना करता है' ऐसा जो कहते हैं वह भी उस मनुष्यों का मोह है क्योंकि-मोक्ष केवल घर त्याग से नहीं होता परन्तु सम्यग् ज्ञान से होता है। और वह ज्ञान तो पुन: घर में अथवा वन में भी साथ रहता है और शेष विकल्पों को छोड़कर वह ज्ञान स्वसाध्य कार्य को साधक भी है, इसलिए हे चित्त ! ज्ञान की महिमा का चिन्तन मनन कर । हे मन ! यदि तू सम्यग् ज्ञानरूपी किल्ले से सुरक्षित रहता है तो संसार में उत्पन्न हुए, और कर्मवश आ मिलते अति रम्य पदार्थ भी तुझे लालची नहीं करते। हे हृदय ! यदि तू सम्यग् ज्ञान रूपी अखण्ड नाव को कभी भी नहीं छोड़ता है तो अविवेक रूपी नदी के प्रवाह से तू नहीं बहता । घर में दीपक के समान उत्तम पात्र रूप जीव में रही हुई मोह की तन्तु रूप बात का और स्नेह राग रूपी तेल का नाश करते मिथ्यात्व रूपी अंधकार को दूर करते तथा संकलेश रूपी काजल का वमन करते सम्यग् ज्ञान रूपी दीपक यदि तेरे में प्रगट हो तो हे चित्त ! क्या नहीं मिला ? अर्थात् सर्वस्वमिल गया। गुरु रूपी पर्वत के आधीन रहना अर्थात् गुर्वाधीन, विषयों के वैराग्य रूपी सार तत्त्व वाला