________________
श्री संवेगरंगशाला
११५ प्रगट नहीं हुआ। हे चित्त ! अविवेक रूपी कीचड़ से कलुषित तेरी मति तब तक निर्मल नहीं होगी कि जब तक सुविवेक रूपी जल से अभिषेक करने की क्रिया नहीं करेगा।
हे हृदय ! सुन्दर भी शब्द, रूप, रस के प्रकार और श्रेष्ठ गन्ध तथा स्पर्श भो तब तक तुझे आकर्षण है जब तक तत्त्व बोध रूपी रत्नों वाला और सुख रूपी जल के समूह से पूर्ण भरा हुआ श्र तज्ञान रूपी अगाध समुद्र में तू ने स्नान नहीं किया। शब्द नियमा कान को सुख देने वाला है, रूप चक्षुओं का हरण करने वाला चोर है, रस जीभ को सुखदायक है, गन्ध नाक को आनन्द देने वाला है और स्पर्श चमड़ी को सुखदायी है उसका संग करने से क्षणिक सुख देकर भी फिर वियोग होते वह तुझे अति भयंकर अन्नत गुणा दुःख देते हैं, इसलिए हे चित्त ! तुझे उस विषयों से क्या प्रयोजन है ? अति मनोहर हवेली, शरद ऋतु का चन्द्र, प्रियजन का संग, पुष्प, चन्द रस दक्षिण दिशा का पवन और मदिरा, ये प्रत्येक तथा सब मिलकर भी सरागी को ही क्षोभित करता है, परन्तु हे चित्त ! विषय के राग से विमुख हुआ तुझे ये क्या कर सकते हैं ? इस संसार में बहुत दान देने से क्या ? अथवा बहुत तप करने से क्या ? बहुत बाह्य कष्टकारी क्रिया करने से भी क्या ? और अधिक पढने से भी क्या ? हे मन ! यदि तू अपना हित समझता हो तो राग आदि के कारणों से निर्वृत्ति कर और वैराग्य के कारणों में रमणता प्राप्त कर । हे हृदय ! तू वैराग्य को छोड़कर विषय के संग को चाहता है वह काल नाग के बिल के पास चन्दन के काष्ठो से अनेक द्वार वाला सुन्दर घर बनाकर वहाँ मालति की पुष्पों की शय्या में 'यह सुख है' ऐसा समझ कर निद्रा को लेने की इच्छा करने के समान है । हे हृदय ! यदि तू निष्पाप और परिणाम से भी सुन्दर ऐश्वर्य को चाहता है तो आत्मा में रहे सम्यग् ज्ञान रूपी रत्न को धारण कर । जब तक तेरे अन्दर घोर अज्ञान अन्धकार है, तब तक वह तुझे अन्धकारमय बनायेगा, इसलिए हे हृदय ! तू यदि आज भी जैन मत रूपी सूर्य को अन्दर से प्रगट करे तो प्रकाश वाला होगा। हे हृदय ! मैं मानता हूँ कि-मोह से महा अंधकार से व्याप्त यह संसार रूपी विषम गुफा में से तुझे निकलने का उपाय ज्ञान दीपक के बिना अन्य कोई नहीं है। हे चित्त ! द्रव्याद्रिक जड़ का संग छोड़कर संवेग का आश्रय स्वीकार कर कि जिससे यह तेरी संसार की गांठ मूल में से टूट जाए । हे मूढ़ हृदय ! सुख के लिए इच्छा करते हुये भी दुःखमय वैभव से क्या प्रयोजन है ? अतः आत्मा को सन्तोष में स्थिर करके तू स्वयं सुखी बन। विभूतियाँ प्रकृति