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श्री संवेगरंगशाला कहता हूँ-(१) अर्हद्वार, (२) लिंग द्वार, (३) शिक्षा द्वार, (४) विनय द्वार, (५) समाधि द्वार, (६) मनोनुशास्ति द्वार, (१०) अनियत विहार द्वार, (८) राज द्वार, (६) परिणाम द्वार, (१०) त्याग द्वार, (११) मरणविभक्ति द्वार, (१२) अधिगत (पंडित) मरण द्वार, (१३) श्रेणि द्वार, (१४) भावना द्वार और (१५) संलेखना द्वार हैं उनका वर्णन क्रमशः कहते हैं
अर्हद्वार-अर्ह अर्थात् योग्य माने यहाँ आराधना करने में योग्य समझना। इसमें सामंत, मन्त्री, सार्थवाह, श्रेष्ठि या कौटुम्बिक आदि अथवा राजा, स्वामी, सेनापति, कुमार आदि किसी में से अथवा उस राजादि का अविरुद्धकारी अन्यतर कोई कार्य तथा उनके विरोधियों के संसर्ग का वह त्यागी होता है और जो आराधक साधुओं को चिन्तामणी तुल्य समझकर उनका सन्मान करता है, ऐसे दृढ अनुरागी उन माधुओं की सेवा करने के लिये अत्यर्थ प्रार्थना करता है और आराधना के योग्य अन्य आत्माओं के प्रति भी वह हमेशा वात्सल्य करता है और प्रमादी जीवों को धर्म आराधना की दुर्लभता है ऐसा मानता है । और मृत्यु इष्ट भाव में विघ्नरूप है, ऐसा नित्य विचार करे और उसे रोकने का साधन आराधना ही है ऐसा चिन्तन करे । हमेशा उद्यमशील उत्साहपूर्वक श्री अरिहंत भगवान की पूजा सत्कार करे और गुणरूपी मणि के टोकरी स्वरूप उनके गुणों से गुरुत्व का विचार करे । प्रवचन की प्रशंसा में रक्त रहे, धर्म निन्दा से रुक जाए, और गुण से सहान् गुरु की भक्ति में हमेशा शक्ति अनुसार तैयार रहे। सुन्दर मन वाले मुनियों को अति तरह से वन्दन करे, अपने दुश्चरित्र की अच्छी तरह निन्दा करे, गुण से सूस्थिर गुणी आत्माओं में राग करे, सदा शील और सत्य के पालन करने में तैयार रहे। कूसंग का त्याग करे, सदाचारियों के साथ में संसर्ग करे, हमेशा परगुणों को ग्रहण करे, फिर भी उसमें दोषों को नहीं देखे । प्रमादरूपी दुष्ट पिशाच को नाश करे, इन्द्रियों रूपी सिंहों को वश में करे, और अत्यन्त दुष्ट प्रवृत्ति वाला, दुराचारी मनरूपी बंदर का ताड़न करे, ज्ञान को सुने, ज्ञान को स्वीकार करे, ज्ञानपूर्वक कार्य करे, अधिक ज्ञानी प्रतिराग करे, ज्ञानदान में बारम्बार तैयार रहे । नियम अकुशल के क्षयोपशम वाला और कुशल के अनुबन्धन वाला हो, गुणों की सत्तावाला गुणी आत्मा ही आराधना को योग्य जानता है।
कुगति के पन्थ में सहायक अपने कषायों को किसी भी तरह से जीतकर प्रशान्त मन वाला, जो दूसरों के कषायों को भी प्रशान्त करता है, वह आराधना के योग्य जानना । क्योंकि उपशम भाव को नहीं प्राप्त करने वाला, कषाय वाला भी अन्य के कषायों के उपशान्त करने के शुभभाव से सम्यग्