________________
६४
श्री संवेगरंगशाला
से शोभित सूअर ने मकान में प्रवेश किया।" उसके बाद विस्मित मन वाले उन्होंने स्वप्न का भावार्थ सूरि जी से पूछा । उन्होंने कहा-हाथी समान उत्तम साधुओं के साथ में सूअर के समान अधम गुरु आयेगा। फिर सूर्य उदय हुआ तब सौम्य ग्रहों के साथ शनि के समान और कल्पवृक्षों के खण्ड समूह में एरण्डवृक्ष समान पाँच सौ मुनियों के साथ रुद्रदेव नाम के आचार्य आए। साधुओं ने उनकी सर्व उचित सेवा भक्ति की, फिर सूअर की परीक्षा के लिए स्थानिक मुनियों को गुरु ने कहने से रात में मात्रा परठने की भूमि पर कोयले डालकर, गुप्त प्रदेश में खड़े होकर देखते रहे, साधक साधु जब मात्रा की भूमि चले तब कोयले पर पैर का आक्रमण होने से किस-किस तरह शब्द उत्पन्न हुआ उसे सुनकर ही खेद करने लगे। बार-बार मिच्छामि टुक्कण्ड देकर हा ! ऐसा यहाँ क्या हुआ ? ऐसा बोलते कोयले के उस किस-किस आवाज के स्थान पर 'यहाँ क्या है ? वह सुबह सूर्य उदय के पश्चात् देखेंगे' ऐसी बुद्धि से निशानी लगाकर जल्दी है वापिस लौट आए, उसके बाद उनके गुरु वह किस-किस शब्द होने से प्रसन्न हुए "अहो ! श्री जिनेश्वरों ने इसमें भी जीव कहा है।" ऐसा बोलते जैन की हंसी करते कोयले को पैर से जोर से दबाते हुये मात्रा की भूमि में गये, और यह बात उन शिष्यों ने अपने आचार्य को कही, उन्होंने भी कहाहे तपस्वियों ! वह यह गुरु सूअर समान और उसके शिष्य महामुनि हाथी के बच्चों के समान हैं। उसके बाद प्रसंग पर श्री विजयसेन सूरि जी ने श्रेष्ठ साधुओं में जैसा देखा था वैसा हेतु और युक्तियों से समझाकर कहा कि- भो महानुभावों! यह तुम्हारा गुरु निश्चित ही अभव्य है, अतः यदि मोक्ष की अभिलाषा वाले हो तो शीघ्रमेव उसका त्याग करो। क्योंकि उल्टे पंथ पर चढ़े हुये मन्द बुद्धि वाले भी गुरु का त्याग करते हैं, उसे दोष का प्रसंग आता है इसलिये विधिपूर्वक उसका त्याग करना योग्य है। ऐसा सुनकर उन्होंने उपायपूर्वक शीघ्र उसे छोड़ दिया और उग्रतप विशेष करते उन्होंने देव लक्ष्मी स्वर्ग को प्राप्त की। वह अंगार मर्दक पुनः कष्टकारी क्रियाओं में तत्पर होने पर सदज्ञान रहित होने से चिरकाल संसार में दुःखी हुआ। इसलिए हे देवानु प्रिय ! आराधना की इच्छा करने वाले तुम ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा रूप दोनों शिक्षाओं में भी सम्यग् प्रयत्न करो।
ग्रहण-आसेवन शिक्षा के भेद-इस तरह उस अभय शिक्षा के पुनः दो-दो भेद होते हैं, एक सामान्य आचरण स्वरूप और दूसरा सविशेष आचरण स्वरूप है, उस प्रत्येक के भी (१) साधु सम्बन्धी और (२) गृहस्थ सम्बन्धी दो प्रकार