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श्री संवेगरंगशाला
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कार्यों में शिथिलता-अनादार, परलोक की आराधना में एक रसता आदर, चारित्न गुण में लोलुपता, लोकपवाद हो ऐसे कार्यों में भीरूता, और संसारमोक्ष के वास्तविक गुण दोष की भावना के अनुसार प्रत्येक प्रसंग पर सम्यक्तया परम संवेग रस का अनुभव करना। सर्व कार्य विधिपूर्वक करना, श्री जैन शासन द्वारा परम शमरस की प्राप्ति और संवेग का सारभूत सामायिक, स्वाध्याय तथा ध्यान में एकाग्रता करना, इत्यादि उत्तर गुण समूह को सम्यग् आराधना करते अतृप्त, बुद्धिमान कुलिन गृहस्थ समय को व्यतीत करे, इससे जैसे कोई धीरे-धीरे कदम आगे बढ़ाते महान् पर्वत ऊपर चढ़ जाता है वैसे धीर पुरुष आराधना रूपी पर्वत के ऊपर सम्यक् समारूढ़ हो जाता है। इस प्रकार धर्म के अर्थी गृहस्थ का विशेष आचार यहाँ तक कहा है। अब साधु सम्बन्धी वह विशेष आसेवन शिक्षा संक्षेप में कहते हैं :
साधु का विशिष्ट आचार धर्म:-सिद्धान्त के ज्ञाताओं ने कही हई केवल साधु को जो प्रतिदिन की क्रिया है उसे ही विशेष आसेवन क्रिया भी कहते हैं वह इस प्रकार जानना :-प्रति लेखना, प्रमार्जन, भिक्षाचर्या, आलोचना, भोजन पान धोना, विचार, स्थंडिल शुद्धि और प्रतिक्रमण करना इत्यादि । और 'इच्छाकार-मिथ्याकार' आदि उपसंपदा तक की सुविहित जन के योग्य दस प्रकार की समाचारी का पालन करे, स्वयं अध्ययन करे, दूसरे को अध्ययन करावे, और तत्त्व को भी प्रयत्न से चिन्तन करे, यदि इस विशेष आचारों में आदर न हो तो वह मुनि व्यसनी है-अर्थात् मिथ्यात्व आदत वाला है। इस तरह गुण दोष की परीक्षा करके तथा ग्रहण शिक्षा रूप ज्ञान को प्राप्त कर प्रतिक्षण आसेवन शिक्षा के अनुसार सेवन करना। इस प्रकार सामान्यतया धर्म के सर्व अर्थों को इन अवान्तर भेदों सहित यदि दोनों प्रकार की शिक्षा कही है उससे युक्त हो तो आराधना में एक चित्त वाले का क्या पूछना ? धर्मार्थी को भी पूर्व के आचारों के दृढ़ अभ्यास बिना इस तरह विशेष आराधना नहीं हो सकती है इस कारण से उस विशेष आराधना के अर्थों को सर्व प्रकार से, इन शिक्षाओं में प्रयत्नपूर्वक यत्न करना चाहिये, अब इस विषय में अधिक क्या लिखें ? इस तरह धर्मोपदेश से मनोहर और परिकर्म विधि आदि चार मुख्य द्वारों वाला आराधना रूपी संवेगरंगशाला के पन्द्रह अन्तर भेद द्वार वाला प्रथम परिकर्म द्वार का यह तीसरा शिक्षा द्वार भेद प्रदेशपूर्वक सम्पूर्ण हुआ। पूर्वोक्त दोनों शिक्षाओं में चतुर हो परन्तु आराधना विनय बिना कृतार्थ नहीं होता है अतः अब विनय द्वार कहते हैं ।