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श्री संवेगरंगशाला
का नाश करने वाला और गुणों को प्रकाशमय करने वाला मन के अनुशासन को यहाँ कहते हैं । सुसमाधि वाला वह अनुशासन इस प्रकार करे :
छठा मन का अनुशास्ति द्वार हे चित्त ! विचित्र चित्रों के समान त भी अनेक रंगों (विविध विचारों को) धारण करता है, परन्तु यह परायी पंचायत द्वारा तू अपने आपको ठगता है । रूदन, गति, नाच, हँसना, खेलना आदि विकारों से जीवों को मदोन्मत्त (घनचक्कर) के समान देखकर हे हृदय ! तू स्वयं ऐसा आचरण करता है कि जिससे तू दूसरों की हँसी का पात्र न बने! क्या मोह सर्प से डंक लगने द्वारा अति व्याकुल प्रवृत्ति वाला, सामने रहे अशान्त अथवा असत् मिथ्या जगत को तू नहीं देखता है ? कि जिससे विवेक रूपी मन का तू स्मरण नहीं करता है ? हे चित्त ! तू चपलता से शीघ्रमेव रसातल में प्रवेश करता है, आकाश में पहुँच जाता है और सर्व दिशाओं में भी परिभ्रमण करता है लेकिन उन प्रत्येक से संग रहित तू किसी को स्पर्श नहीं करता है । हे हृदय ! जन्म, जरा और मृत्यु रूपी अग्नि से संसार रूपी भवन चारों तरफ से जल रहा है इसलिए तू ज्ञान समुद्र में स्नान करके स्वस्थता को प्राप्त करो! हे हृदय ! शिकारी के समान संसार के रागरूपी जाल द्वारा तूने स्वयं महाबंधन किया है, अतः प्रसन्न होकर इस समय ऐसा करो कि जिससे वह बन्धन शीघ्र विनाश हो जाए। हे मन ! अस्थिर वैभवों की चिन्तन करने से क्या लाभ ? इससे तेरी वह तृष्णा रुकी नहीं, इसलिए अब संतोषरूपी रसायण का पान कर । हे हृदय ! यदि तू निविकार सुख को चाहता है तो पुत्र, स्त्री आदि के गाढ़ सम्बन्ध से अथवा प्रसंगों से विचित्र यह भव स्वरूप को इन्द्रजाल समझ । यदि तुझे सुख का अभिमान है तो हे हृदय ! संसाररूपी अटवी में रहा हुआ धन और शरीर को लूटने में कुशल शब्दादि विषयरूपी पाश में फंसा हुआ हूँ ऐसा तू अपने आपको क्यों नहीं देखता ? संसारजन्य दुःखों में यदि तुझे द्वेष है और सुख में तेरी इच्छा है तो ऐसा कर कि जिससे दुःख न हो और वह सुख अनन्तता शाश्वता हो । जब तेरी चित्तवृत्ति मित्रशत्र में समान प्रवृत्ति होगी तब निश्चय तू सकल संताप बिना का सुख प्राप्त करेगा। हे मन ! नरक और स्वर्ग में, शत्रु और मित्र में, संसार और मोक्ष में, दुःख और सुख में, मिट्टी और सुवर्ण में यदि तू समान समभाव वाला है तो तू कृतार्थ है।
हे हृदय ! प्रति समय में नजदीक आते और उसको रोकने में असमर्थ एक मृत्यु का ही तू विचार कर! शेष विकल्पों के जाल का विचार करने से