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श्री संवेगरंगशाला
की तुलना में एक लेशमात्र भी नहीं है । इन्द्र ने कहा-हे राजन् ! सुवर्ण-मणि का समूह कासा और वस्त्रों की वृद्धि करके दीक्षा लेना योग्य है । मुनि ने कहा-हे भद्र ! सुवर्ण-मणि आदि के कैलाश जितने ऊँचे हमने असंख्यात् ढेर किये परन्तु लोभी एक जीव की भी तृप्ति नहीं हो सकी क्योंकि-इच्छा आकाश के समान विशाल है, किसी से भी पूरी नहीं हुई है। जैसे-जैसे लाभ बढ़ता है, वैसे-वैसे लोभ भी बढ़ता है। इस तरह तीन जगत की ऋद्धि सिद्धि प्राप्त होने पर भी किसी प्रकार की शान्ति नहीं होती है।
इन्द्र ने कहा-राजन् ! होते हुए भी मनोहर भोगों का त्याग करके, अभाव वस्तु की इच्छा करते तुम संकल्प से पीड़ित होते हो। मुनि ने कहाहे मुग्ध ! शल्य' अच्छा है, जहर पीना अच्छा है, अति विष सर्प श्रेष्ठ है, क्रोध केसरी सिंह अच्छा है और अग्नि अच्छी है परन्तु भोग अच्छा नहीं है, क्योंकि इच्छा करने मात्र से वह भोग मनुष्य को नरक में ले जाता है, और दुस्तर भव समुद्र में परिभ्रमण करवाता है । शल्य आदि का भोग हो जाये तो भी उससे एक ही भव को मृत्यु होती है, भोग की तो इच्छा मात्र से भी जीव लाख-लाख बार मरता है, इसलिए भोगवांछा का त्यागी हूँ परम अधोगति कारक क्रोध को, अधम गति का मार्ग देने वाले मान को, सद्गति की घातक माया को, और इस भव-परभव उभय भव में भय कारक लोभ का भी नाश करके केवल साधुता की साधना में उद्यम करूँगा। इस प्रकार परम समाधि वाला, अत्यन्त उपशमभाव वाले उस नमि राजर्षि की विविध अनेक युक्तियों से परीक्षा करके और सुवर्ण के समान एक शुद्ध स्वरूप वाला जानकर अति हर्ष उत्पन्न हुआ और इन्द्र उनकी स्तुति करने लगा कि हे क्रोध को जीतने वाले ! सर्वमान को नाश करने वाले ! और विशाल फैलाव करने वाली प्रबन्ध माया के प्रपंच का नाश करने वाले हे मुनिवर्य ! आप विजयी हों, लोभरूपी योद्धा को हनन करने वाले, पुत्र परिवार आदि संग के त्यागी, इस जगत में आप ही एक परमपूज्य हैं। इस भव में तो आप एक उत्तम हैं ही, परभव में भी उत्तमोत्तम होंगे, अष्टकर्म को गाँठ को चरने वाले आप निश्चय तीन जगत के तिलक समान उत्तम सिद्ध क्षेत्र को प्राप्त करोगे। आपके संकीर्तन-भक्ति से शुद्धि क्यों नहीं हो ? आपके दर्शन से पाप उपशम क्यों नहीं होंगे ? कि जिनमें प्रयास से साध्य और शिवसुख की प्राप्ति में सफल मन के निरोध रूप यह समाधि स्फूर्ति है। इस प्रकार मुनि की स्तुति कर और कमल, वज्र, चक्र आदि सुलक्षणों से अलंकृत मुनि के चरण कमल को भक्तिपूर्वक वस्दन करके तुरन्त