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श्री संवेगरंगशाला चौथा विनय द्वार-विनय पांच प्रकार का होता है प्रथम ज्ञान विनय, दूसरा दर्शन विनय, तीसरा चारित्र विनय, चौथा तप विनय और अन्तिम पाँचवां उपचार विनय है। उसमें ज्ञान का विनय (१) काल, (२) विनय, (३) बहुमान, (४) उपधान, (५) अनिन्हवण तथा (६) व्यंजन, (७) अर्थ, और (८) तदुभय इस तरह आठ प्रकार का है। दर्शन विनय भी (१) निःशंकित, (२) निष्कांक्षित, (३) निर्वितिगिच्छा, (४) अमूढ़ दृष्टि, (५) उपवृहणा, (६) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य और (८) प्रभावना। ये आठ प्रकार से जानना। प्राणिधानपूर्वक जो तीन गुप्ति और पाँच समितियों के आश्रित उद्यम करना वह आठ प्रकार का चारित्र विनय है। तप में तथा तप के रागी तपस्वियों में भक्तिभाव, दूसरे उन तपस्वियों की हीनता का त्याग और शक्ति के अनुसार भी तप का उद्यम करना वह तप विनय जानना । औपचारिक विनय कायिक, वाचिक और मानसिक यह तीन प्रकार की है। वह प्रत्येक भी प्रत्यक्ष और परोक्ष इस तरह दो भेद हैं। इसमें गुण वाले के दर्शनमात्र से भी खड़ा होना, सात-आठ कदम आने वाले के सामने जाना, विनयपूर्वक दो हाथ जोड़कर अंजलि करना, उनके पैरों का प्रेमार्जन करना, आसन देना और उनके बैठने के बाद उचित स्थान पर स्वयं बैठना इत्यादि कायिक विनय जानना। अधिक ज्ञानी के गौरव वाले वचन कहकर उनके गुणगाण का कीर्तन करना वह वाचिक विनय होता है और उनके आश्रित जो अकुशल मन का निरोध और कुशल मन की उद्दीरणा होती है वह मानसिक विनय जानना । उसमें आसन देना इत्यादि प्रत्यक्ष किया जाता है इसलिए यह प्रत्यक्ष विनय और गुरु के विरह-अभाव में भी उन्होंने कही हुई विधि में प्रवृत्ति करना वह परोक्ष विनय कहलाता है।
इस प्रकार अनेक भेद वाले विनय को अच्छी तरह जानकर आराधना के अभिलाषी धीर पुरुष उस विनय को सम्यग् पूर्वक आचरण करे-क्योंकि जिसके पास से विद्या पढ़नी हो उस धर्म गुरु का अविनय से यदि पराभव करता है उसे वह अच्छी तरह ग्रहण की हुई भी विद्या लाभदायक नहीं होती है परन्तु दुःखरूप फल देने वाला है, और यदि गुरु ने उपदेश दिये हुये विनय को हितशिक्षा को भावपूर्वक स्वीकार करता है उसे आचरण करता है, तो वह मनुष्य सर्वत्र विश्वासपात्र, तत्त्वातत्त्व का निर्णय और विशिष्ट बुद्धि को प्राप्त करता है। कुशल पुरुष साधु अथवा गृहस्थ के विनय की ही प्रशंसा करते हैं क्योंकि सर्व गुणों का मूल विनय है अविनीत मनुष्य लोग में कीर्ति और यश को नहीं प्राप्त करता है । कई विनय को जानते हुए भी कर्म विपाक के दोष