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श्री संवेगरंगशाला
૧૦૧ से राग द्वेष के आधीन पड़ा विनय करना नहीं चाहता है। विनय लक्ष्मी का मूल है, विनय समस्त सुखों का मूल है, विनय निश्चय धर्म का मूल है और विनय कल्याण-मोक्ष का भी मूल है। विनय रहित सारा अनुष्ठान निरर्थक है, विनय वाले का वह सारा अनुष्ठान सफलता को प्राप्त करता है। तथा विनय रहित को दी हई सारी विद्या-शिक्षा भी निरर्थक जाती है। शिक्षा का फल विनय और विनय का फल सर्व में मुख्यता है। विनय से दोष भी गुणस्वरूप बनते हैं, अविनीत के गुण भी दोष रूप होते हैं। सज्जनों के मन को रंजन करने वाली मैत्री भी विनय से होती है। माता-पिता भी विनीत सम्यग् गुरुत्व रूप देखते हैं और खेदजनक है कि अविनीत के माता-पिता भी उसे शत्ररूप देखते हैं। विनयोपचार करने से अदृश्य रूप देवादि भी दर्शन देते हैं, अविनय से नाराज हए पास में रहे भी वह शीघ्र दूर जाता है । प्रसूत गाय अपने बछड़े को देखकर जैसे अति प्रसन्न होती है, वैसे पत्थर के समान कठोर हृदय वाला
और तेजोद्वेषी-असहिष्णु मनुष्य भी विनय से शीघ्र प्रसन्न होता है। विन्य से विश्वास, विनय से सकल प्रयोजन की सिद्धियाँ और विनय से ही सर्व विद्याएँ भी सफल बन जाती हैं । गुरु को पराभव करने वाली बुद्धिरूप दोष से सुशिक्षित भी अविनीत की विद्या नाश होती है, वह विद्या नाश न हो तो भी गुणकारक नहीं होती है। अविनीत को विद्या देने से गुरु भी उपालम्भ प्राप्त करता है अपने कार्य को नष्ट करता है और अविनीत से विनाश को भी प्राप्त करता है। तथा अच्छे कूल में जन्मी हुई श्रेष्ठ पति को स्वीकार की हुई कुल बालिका के समान पति के बल को प्राप्त करती है वैसे विनयवान पुरुष को ग्रहण की हई विद्या भी बलवान बनती है। श्रेणिक राजा जैसे गुरु का पराभव करने वाले विनोत में विद्या प्रवेश नहीं करती है। जब वही श्रेणिक राजा विनीत बनता है तब उसमें विद्या प्रवेश करती है। उसका दृष्टान्त इस प्रकार है :
विनय पर श्रेणिक राजा की कथा राजगृह नगर में इन्द्र के समान प्रशंसा फैलाने वाला सम्यक्त्व की स्थिरता में दृढ़ अभ्यासी और वैसी ही बुद्धि वाला श्रेणिक नामक राजा राज्य करता था। उसकी सब रानियों में मुख्य चेल्लणा नामक रानी और चार प्रकार की बुद्धि से समृद्धशाली अभयकुमार नाम का उनका ही पुत्र मन्त्री था। एक समय रानी ने राजा से कहा-मेरे लिए एक स्तम्भ वाला महल बनाओ, रानी के अति आग्रह से संतप्त हुए राजा ने उसकी बात स्वीकार की और