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श्री संवेगरंगशाला
सामान्य आचरण रूप आराधना करे फिर सविशेष आचरण स्वरूप-आसेवन शिक्षा आचरण करे । पूर्व में सूचित उत्तम श्रावक और साधु को दो प्रकार की भी विशेष आसवन शिक्षा को सम्यग् विभाग संक्षेप में कहा जाता है, उसमें भी सामान्य आसेवन शिक्षा के पालन करने से सविशेष योग्यता को प्राप्त करता है श्री जिनेश्वर भगवान के मत का सम्यग् जानकार गृहस्थ की विशेष आसेवन शिक्षा प्रथम कहा जाता है। वह इस प्रकार है :
गृहस्थ का विशिष्ट आचार धर्म-प्रतिदिन बढ़ते शुभ परिणाम गृहस्थ घर वाले की आसक्ति परिणाम अहितकर जानकर, आयुष्य, यौवन और धन को महावायु से डगमगाता केले के पत्ते लगे जल बिन्दु के समान क्षण विनश्वर मानकर, स्वभाव से ही विनीत, स्वभाव से ही भद्रिक, स्वभाव से ही परम संवेगी, प्रकृति से ही उदार चित्त वाला, और प्रकृति से ही यथाशक्ति उठाये हुये भार (कार्य) वहन करने में धोरी वृषभ समान, बुद्धिमान सुश्रावक सदा सार्मिक वात्सल्य में, जीर्ण मन्दिरों के उद्धार कराने में, और परनिन्दा के त्याग में प्रयत्न करे। तथा निद्रा पूरी होते ही पंचपरमेष्ठ महामंगल का स्मरण करके अपनी स्थिति अनुसार धर्म जागरण पूर्वक उठकर लघुशंकादि समयोचित करे फिर गृह मन्दिर में संक्षेप से श्री जैन प्रतिमाओं को वन्दन करके साधु की बस्ती-उपाश्रय में जाए और वहाँ आवश्यक प्रतिक्रमण आदि करे। इस प्रकार करने से-(१) श्री जिनेश्वर की आज्ञा का सम्यग् पालन, (२) गुरु परतन्त्रता (विनय), (३) सूत्र-अर्थ का निशेष ज्ञान, (४) यथास्थित समाचारी (आचार) में कुशलता, (५) अशुद्ध मिथ्यात्व बुद्धि का नाश और गुरु साक्षी में धर्म सम्पूर्ण विधि का पालन होता है । अथवा साधुओं का योग न हो या बस्ती उपाश्रय में जगह का अभाव आदि कारण से गुरु आज्ञा से पौषधशालादि में भी करे, फिर समय अनुसार स्वाध्याय करके नये सूत्र का भी अभ्यास करे, फिर वहाँ से निकलकर द्रव्य भाव से निर्मल बनकर प्रथम अपने घर में ही नित्य सूत्र विधिपूर्वक चैत्य वन्दन और वैभव के अनुसार पूजा करे। उसके बाद वैरागी उत्तम श्रावक यदि उसे ऐसा कोई घर कार्य न हो तो उसी समय ही शरीर शुद्धि स्नान करके उत्तम शृङ्गार सजा कर, पुष्पों आदि से विविध पूजा की सामग्री के समूह को हाथ में उठाकर परिवार को साथ लेकर श्री जैन-मन्दिर में जाए और पाँच प्रकार के अभिगम-विनय पूर्वक वहाँ प्रवेश करके विधिपूर्वक सम्यक् श्रेष्ठ पूजा करे फिर जय वीयः राय तक सम्पूर्ण देव वन्दन करे । फिर किसी कारण से प्रातः सामायिक आदि साधु के पास नहीं करने से जैन भवन के मण्डप में, अपने घर में अथवा पौषध