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श्री संवेग रंगशाला
विरति प्रधान धर्म के लिए अयोग्य बना, मेरे शास्त्रार्थ के परिश्रम को धिक्कार हो ! बुद्धि की सूक्ष्मता को धिक्कार हो ! और अत्यन्त परोपदेश पांडित्य को धिक्कार हो ! वेश्या के शृङ्गार के समान केवल दूसरे के चित्त को प्रसन्न करने के लिए हमेशा भावरहित क्रिया को भी धिक्कार है । इस तरह वैरागी बनकर वह प्रतिक्षण अपने दुश्चारित्र की निन्दा करते कैदखाने में बन्द के समान दिन व्यतीत करने लगा । फिर उस मार्ग से हमेशा जंगल के लिए जाते अपने शिष्यों को देखकर उनको प्रतिबोध करने लिए वह यक्ष की प्रतिमा के मुख में से लम्बी जीभ बाहर निकालकर रहने लगा । प्रतिदिन उसे इस तरह करते देखकर मुनियों ने कहा कि - यहाँ पर जो कोई भी देव, यक्ष, राक्षस अथवा किन्नर हो जो हमें कहना हो वह प्रगट रूप कहो, इस तरह तो हम कुछ भी नहीं समझ सकते । इससे खेदपूर्वक यक्ष ने कहा - हे तपस्वियों ! वह मैं क्रिया का चोर तुम्हारा गुरु आर्य भिंगु हूँ। यह सुनकर उन्होंने खेदपूर्वक कहा - हा ! श्रुतनिधि !! दोनों शिक्षा में अति दक्ष आपने नीच यक्ष की योनि को कैसे प्राप्त किया ? यह महान आश्चर्य है । उसने कहा - हे महाभाग साधुओं ! इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है । सद्धर्म की क्रिया के कार्यों में शिथिल श्रावकों में राग करने वाला, ऋद्धि रस और शांता गौरव से भारी बना, शीतल विहारी, मेरे जैसे रसनेन्द्रि से हारे हुये की यही गति होती है । इस तरह मेरी कुत्सित देवयोनि को जानकर हे महासात्त्विक साधुओं । यदि सद्गति का प्रयोजन हो तो दुर्लभ संयम को प्राप्त कर तुम प्रमाद के त्यागी बनो, काम रूपी यौद्धा को जीतने वाले, चरण-करण गुण में रक्त, ज्ञानियों की विजय भक्ति करने वाले, ममत्व का त्यागी और मोक्ष मार्ग में आसक्त होकर उपाधि आहार आदि से अल्प लेकर प्राणियों की रक्षा करते विचरण करो । शिष्यों ने कहा - भो देवानु प्रिय ! आपने हमें अच्छा जागृत किया, ऐसा कहकर मुनि संयम में उद्यमशील बने । इस तरह आसेवन शिक्षा के बिना पूर्ण ग्रहण शिक्षा भी किसी रूप में सद्गति वांछित फल साधक नहीं बनता है, और सम्यग् ज्ञान बिना की आसेवन शिक्षा को भी सम्यग् ज्ञान बिना के अंगार मर्दक के समान हितकर नहीं उसकी कथा इस प्रकार है :
अंगार मर्दक आचार्य की कथा
गर्जनक नाम का नगर था, वहाँ उत्तम साधुओं के समुदाय से युक्त सद्धर्म में परायण श्री विजयसेन सूरि जी मासकल्प स्थिर रहे थे । रात्री के अन्तिम समय में उनके शिष्यों ने स्वप्न देखा कि “निश्चय से पाँच सौ हाथी के बच्चों