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श्री संवेगरंगशाला
'एक चक्र से रथ नहीं चलता, अंधा और पंगु होने पर भी वन में दोनों परस्पर सहायक होने से नगर में पहुँचते हैं।' "ज्ञान नेत्र समान है और चारित्र चलने की प्रवृत्ति समान है, दोनों का सम्यग् योग होने पर श्री जिनेश्वर देवों ने शिवपुर की प्राप्ति कहा है।" इस तरह मुनियों के हेतु भी दोनों शिक्षाओं के उपदेश का वर्णन किया है श्रमणोपासक श्रावक को तो उसमें सविशेष प्रयत्न करना ही चाहिए। इसीलिए ही प्रशंसा की जाती है कि-वही पुरुष जगत में धन्य है कि जो नित्य अप्रमादी ज्ञानी और चारित्र वाला है। क्योंकि परमार्थ के तत्त्व को अच्छी तरह जानने से और तप-संयम गुणों को अखण्ड पालने से कर्म समूह को नाश होते विशिष्ट गति-मोक्ष प्राप्त होता है। इसलिये चतुर पुरुष ज्ञान से प्रथम लक्ष्य पदार्थ का लक्ष्य जानकर फिर लक्ष्य के अनुरूप क्रिया का आचरण करे। यदि इसमें क्रिया रहित ग्रहण शिक्षा एक ही सफल होती हो तो श्रुतनिधि मथुरा मंगु आचार्य भी ऐसी दशा को प्राप्त नहीं करते वह इस प्रकार है
मथुरा के मंगु आचार्य को कथा मथुरा नगरी में युग प्रधान और श्रुत निधान, हमेशा शिष्यों को सूत्र अर्थ पढ़ाने में नियत प्रवृत्ति वाले और भव्य जीवों को धर्मोपदेश देने में परिश्रम की भी परिवार नहीं करने वाले लोक प्रसिद्ध आर्यमंगु नामक आचार्य थे। परन्तु यथोक्त क्रियाएँ नहीं करते, सुखशील बने वे श्रावकों के रागी होकर तीन गौरव वश हो गये, भक्तों द्वारा हमेशा उत्तम आहार पानी वस्त्र आदि मिलने से वे अप्रतिबद्ध विहार छोड़कर चिरकाल वहीं रहने लगे। उसके बाद साधुता में शिथिल आचार्य वह बहुत प्रमाद को सेवन कर और अपने दोषों की प्रायश्चित रूप शुद्धि नहीं करने से आयुष्य पूर्ण होने से मर कर अत्यन्त चंडाल तुल्य किल्वियक्ष होकर उसी नगर के नाले के पास यक्ष के भवन में यक्ष रूप उत्पन्न हुआ। विभंग ज्ञान से पूर्व जन्म को जानकर वह चिन्तन करने लगा कि-अहो! पापी बने मैंने प्रमाद से मदोन्मत्त होकर विचित्र अतिशयों रूपी रत्नों से भरे जिन शासन रूपी निधान को प्राप्त करके भी उसमें कही हुई क्रिया से पराङमुख बनकर उसे निष्फल गँवा दिया, मनुष्य जन्म, आर्य क्षेत्र, उत्तम आदि सधर्म के हेतुभूत सामग्री को और प्रमाद से गँवाया हुआ चारित्र को अब कहाँ प्राप्त करूँगा? हे पापी जीव ! उस समय शास्त्रार्थ के जानकार होते हुये भी तूने ऋद्धि-रस और शांता गौरव का विरसत्व क्या नहीं जाना था? अब चंडाल समान यह किल्विष देव भव को प्राप्त कर मैं दीर्घकाल तक