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श्री संवेगरंगशाला
भिल्लों का अधिपति बना है, ऐसा सुना है। उसके पास में बस्ती की याचना कर यहाँ वर्षा काल व्यतीत करें और इस तरह चारित्र का निष्कलंक पालन करें। साधुओं ने वह मान्य किया फिर वे वंकचूल के घर गये और गर्व से ऊँची गर्दन वाले उसने कुछ अल्पमात्र नमस्कार किया। उसके बाद धर्म लाभ रूपी आशिष देकर आचार्य श्री जी ने कहा-अहो भाग्यशाली | साथियों से अलग पड़े और वर्षा काल में आगे बढ़ने में असमर्थ होने से हम 'श्री जैन शासन रूपी सरोवर में राजहंस समान विमलयश राजा का पुत्र तुम यहाँ हो' यह सुनकर यहाँ आए हैं इसलिए हे महाभाग ! कोई बस्ती रहने के लिए दो, जिससे चर्तुमास यहाँ रहे, क्योंकि अब साधुओं का एक कदम भी चलना वह योग्य नहीं है।
पाप से घिरा हुआ अति पापी बंकचूल ने कहा-हे भगवन्त ! अनार्यों के संगति से दोष प्रगट होता है इसलिए आपको यहाँ रहना योग्य नहीं है क्योंकि यहाँ मांसाहारी, हिंसा करने में तल्लीन मनवाले, क्रूर अनार्य, क्षुद्र लोग रहते हैं, साधु को उसका परिचय करना भी योग्य नहीं है। तब सूरि जी ने कहा-अहो महाभाव ! इस विषय में लोग कैसे भी हों वह नहीं देखना है हमें तो सर्व प्रयत्नों से जीवों का रक्षण करना ही चाहिए। केंचुएँ, चींटी के समूह से व्याप्त और नयी वनस्पति तथा जल से भरी हुई भूमि पर चलने से साधु धर्म से भ्रष्ट होते हैं। इसलिए निवास स्थान दो और हमारे धर्म में सहायक बनो ! उत्तम कुल में जन्म हुए को प्रार्थना भंग करना वह दूषण है। यह सुनकर दोनों हाथ जोड़कर राजपुत्र ने कहा कि-हे भगवन्त ! बस्ती दूंगा, परन्तु निश्चय रूप यहाँ रहकर आप मेरे आदमी को अल्प भी धर्म सम्बन्धी बात नहीं कह सकते हो, केवल अपने ही कार्य में प्रयत्न करना। क्योंकि तुम्हारे धर्म में सर्व जीवों की सर्व प्रकार से रक्षण करना, असत्य वचन का त्याग, पर धन और पर स्त्री का त्याग हैं, मद्य, सुरा और मांस भक्षण का त्याग है तथा हमेशा इन्द्रियों का जप करने को कहते हैं। इस प्रकार कहने से तो निश्चय ही हमारा परिवार भूखे मर जायेगा। उसे सुनकर आह हा ! आश्चर्यपूर्वक कि-यह वंकचूल दुःसंगति में फँमा हुआ अब भी अपने कुल क्रम के सम्बन्धी जैन धर्म रूपी सर्वस्व को किसी तरह भूला नहीं है। ऐसा चिन्तन करते आचार्य श्री ने उसकी बात स्वीकार की, क्योंकि मनुष्य धर्म से जब अति विमुख हो तब उसकी उपेक्षा करना ही योग्य है। उसके बाद वंकचूल ने उनको नमस्कार करके रहने के लिए स्थान दिया और स्वाध्याय, ध्यान में अतिरत वे साधु भगवन्त वहीं रहे । सद्गुरु के पास रहकर वे महानुभाव मुनिवर विविध