________________
श्री संवेगरंगशाला इस समय आचार्य श्री जिस नियमों से बुद्धि धर्माभिमुख हो, जिस नियमों से प्रत्यक्षमेव आपत्तियों का नाश हो और निश्चय से यह जाने कि 'नियमो का यह फल है' ऐसा नियमों का श्रुतज्ञान के उपयोग से सविशेषपूर्वक जानकर बोले कि-हे भद्रक ! (१) किसी पर आक्रमण करने से पहले सात-आठ कदम पीछे हटना, (२) तुम भूख से यदि अत्यन्त पीड़ित हो फिर भी जिसका नाम नहीं जानते हो ऐसे अनजाने फल नहीं खाना, (३) बड़े राजा की पट्टरानी के साथ सम्भोग नहीं करना, और (४) कौए का मास नहीं खाना। ये चारों नियम तू जीवन तक सर्व प्रयत्न से पालन करना, क्योंकि पुरुषों का यही पुरुषव्रत रूप पुरुषार्थ है । माणिक्य, सोना, मोती, आदि स्त्रियों के आभूषण हैं और स्वीकार की प्रतिज्ञा का पालन वह सत्पुरुषों का अलंकार है । क्योंकि सत्पुरुषों का प्रतिज्ञा पालन में "भले मस्तक कट जाये, संपत्तियो और स्वजन बंधु भी अलग हो जाएँ परन्तु प्रतिज्ञा का पालन करना, जो होने वाला हो वह हो" ऐसा निश्चय होता है। मनुष्यों को सज्जन दुर्जन इस विशेषता से ही दी जाती है, अन्यथा पचेन्द्रियत्व से सर्व समान है उसमे भेद किस तरह से होते ? आचार्य श्री के कहने पर और चारों नियम सुगम होने से वंकचूल ने स्वीकार कर लिया, और महाराज श्री को नमस्कार वह भिल्लपति अपने घर वापिस आया। तथा शिष्या से युक्त आचार्य श्री जी इर्या समिति का पालन करते यथेच्छ देश में जाने को धीरे-धीरे चले। फिर पाप कार्यों में हमेशा चपल इन्द्रियों वाला, विविध सैंकड़ों व्यसनों से युक्त वह भिल्लपति दिन पूर्ण करने लगा।
अन्य किसो दिन सभा मण्डप में बैठे वंकल ने भिल्लों को कहा किबहुत समय से यहाँ व्यापार बिना के मेरे दिन जा रहे हैं तो हे पुरुषों ! पुर, नगर या गाँव आदि जो लूटने योग्य हों उसे सर्वत्र खोजकर आओ! जिससे सर्व कार्य छोड़कर उसे लूटने के लिए जायेंगे, उद्यम के बिना का पति विष्ण हो फिर भी लक्ष्मी उसे छोड़ देती है। यह सुनकर 'तहति' कहकर आज्ञा को स्वीकार कर यथोक्त स्थानों की गुप्त रूप में खोज कर आए और उन पुरुषों ने निवेदन किया हे नाथ ! सुनो ! बहुत श्रेष्ठ वस्तुओं से परिपूर्ण बड़ा सार्थवाह दो दिन के पश्चात् अमुक मार्ग पर पहुँचेगा, इसलिए उस मार्ग को रोक कर उसके आने के पहले आप वहाँ रहो तो अल्पकाल में यथेच्छ लक्ष्मी का समूह प्राप्त हो सकेगा। ऐसा सुनकर कुछ दिन खाना लेकर अपने साथी चोरों के साथ पल्लीपति उस स्थान पर गया। परन्तु इधर उस सार्थवाह को अपशुकन के दोष से मूल मार्ग छोड़कर दूसरे मार्ग से चलकर इष्ट स्थान पर पहुँच गये।