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श्री संवेगरंगशाला अशान्त चित्तवाला, मोह से मूढ़, निदान करने वाला और जो जैन-सिद्ध, आचार्य आदि की आशात्मा में अति आसक्त, पर के संकट को देखकर मन में प्रसन्न होने वाला शब्दादि इन्द्रियों के विषयों में महान गृद्धि वाला, सद्धर्म से पराङमुख, प्रमाद में तत्पर और सर्वत्र पश्चाताप बिना का हो वह भी आगधक नहीं होता है। तथा जो केवल स्वयं ही अधर्म वाला इतना ही नहीं, परन्तु स्वभाव से दूसरों को भी धर्मीजनों को विघ्न करने वाला चैत्यद्रव्य, साधारण द्रव्य के द्रोह से दुष्ट, ऋषि हत्या कर वाले में आदर वाला और जो श्री जिनेश्वर के आगम की उत्सूत्र (विरोध में) उपदेश करने में तत्पर, और श्री जैन शासन के शरदचन्द्र की कीर्ति समान निर्मल यश को विनाश करने वाला और जो साध्वी जी के व्रत भंग करने वाला महापापी, परलोक की इच्छा बिना का, इस लोक के सुख में ही अति रागी, हमेशा अट्ठारह पाप स्थानक में आसक्त मन वाला, और शिष्ट पुरुषों को एवं धर्म-शास्त्रों के जो विरुद्ध कार्यों में भी गाढ़ राग वाला हो, उनकी आराधना योग्य नहीं है। यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि जिस शस्त्र, अग्नि, विष, विशूचिका रोग, शिकारी पशू या पानी आदि का संकट प्राप्त हुआ हो, वह शीघ्र मरने वाला कैसे आराधक हो सकता है ? क्योंकि ये प्रत्येक संकट शीघ्र प्राण लेने वाले हैं। गुरु महाराजा ने उत्तर दियावह भी निश्चय ही मधुराजा अथवा सुकौशल महाराजर्षि ने जिस तरह आराधना की थी उसी तरह संक्षेप से आराधना करनी चाहिए। क्योंकि निश्चय बुद्धिबल से युक्त, शीघ्र उपसर्ग उपस्थित होने पर अथवा आ जाने पर भी उपसर्ग जन्य भय को वह नहीं गिनता निर्भय होता है यद्यपि जब तक बल वाला है, तब तक भी आत्महित में सम्यग् मन को लगाने वाला, अमूढ़ लक्ष्य वाला, जीवन मृत्यु में राग द्वेष से रहित मृत्यु नजदीक आने पर भी सग्राम में सुभट के समान मुख की प्रसन्नता कम नहीं होती, वैसे ही महासत्त्व वाला होता है वह संक्षेप से भी आराधना कर सकता है । इस तरह शास्त्रों में कही हुई युक्तियों से युक्त और परिकर्म विधि आदि चार बड़े मूल द्वार वाली यह संवेग रंगशाला में आराधना का प्रथम परिकर्म द्वार के पन्द्रह अन्तर द्वार में प्रथम यह अर्ह अर्थात् योग्यता सम्बन्धी द्वार विस्तार से कहा है।
दूसरा लिंग द्वार-आराधना में योग्य कौन है, वह कहा, अब उस योग्य को जिस चिह्नों से जान सकते हैं उस लिंगों को या चिह्नों को कहते हैं । परलोक को साधने वाला नित्य कर्तव्य रूप जिन कथित जो योग पूर्व में कहा था उसमें ही अब संवेग रस की वृद्धि से विशेषतापूर्वक सम्यग् दृढ़ उद्यम करना, उस आराधना के योग्य जीव का आराधना रूपी लिंग है।