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श्री संवेगरंगशाला
आराधक गृहस्थ का लिंग-उत्सर्ग से उस श्रावक को शस्त्र, मूसल आदि अधिकरणों का त्याग, पुष्पादि माला, वर्णक तथा चन्दनादिक विलेपन और उदवर्तनादि का त्याग, शरीर का प्रतिकर्म औषध आदि करने का त्याग, एकान्त प्रदेश में रहना, लज्जा को केवल ढांकने के लिए ही वस्त्र धारण करना, समभाव से वासित रहना, जब-जब समय मिले तब-तब प्रतिक्षण में भी सामायिक पौषध आदि में रक्त रहना, राग का त्याग करना, तथा संसार की निर्गुणता के लिए चिन्तन करना, सद्धर्म कर्म में उद्यत मनुष्यों से रहित गाँव या स्थान का त्याग करना, काम-विकार के उत्पादक द्रव्यों की अभिलाषा त्याग करना, हमेशा गुरुजनों के वचनों को अनुराग से सात धातुओं में व्याप्त करना, प्रतिदिन परिमित प्रासुक अन्न, जल का सेवन करना, इत्यादि गुणों का अभ्यास करना, वह निश्चय से आराधक गृहस्थ के लिंग हैं । साधु के भी सर्व साधारण लिंग इसी प्रकार जानना।
साधु के लिंग-(१) मुहपत्ति, (२) रजोहरण (ओघा), (३) शरीर की देखभाल नहीं करना, (४) वस्त्र रहितत्व, और (५) केश का लोचक । ये पाँच उत्सर्ग से साधुता के चिह्न हैं, इन चिह्नों से (१) संयम यात्रा की साधना होती है, (२) चारित्र की निशानी होती है, (३) ये वस्तुयें पास होने से मनुष्य को साधुत्व रूप विश्वास-पूज्य भाव होता है, (४) इससे संयम में स्थिरता का कारण होता है, और (५) साधु वेश धारण करने से गृहस्थ का कार्य नहीं कर सकता है इससे गृहस्थ का त्याग आदि गुणों की प्राप्ति होती है। उस वेश को साधु ने किसी प्रकार विशेष संस्कार किए बिना ही जैसे मिला हो वैसा ही संयम को बाधा रूप न हो इस तरह शरीर के साथ धारण कर रखना और सूत्र में स्थविर कल्पीओं की उपधि के चौदह प्रकार कहे हैं।
मुहपत्ति आदि लिंगों का प्रयोजन और उसका लाभ-मुनि को मुखवस्त्रि का मस्तक और नाभि के ऊपर शरीर के प्रमार्जन करने के लिए हैं और मुख के श्वासोच्छ्वास वायु की रक्षा के लिए और धूल से रक्षा के लिए रखने को कहा है। यह मुहपत्ति द्वार कहा । जो रज और पसीने के मैल से रहित हो, मृदुता, कोमलता और हलका हो ऐसे पाँच गुणों से युक्त रजोहरण की ज्ञानियों ने प्रशंसा की है। जाने आने में, खड़े होने में, कोई वस्तु रखने में, अलग करने में, तथा बैठने में, सोने में, करवट बदलने में इत्यादि कार्य में प्रमार्जन के लिए रजोहरण है। यह रजोहरण द्वार कहा। शरीर मसलना, स्नान, उद्वर्तन तथा बाल दाढ़ी मूंछ को स्वस्थ सुशोभित रखना, दाँत, मुख, नासिका तथा नेत्र भ्रकुटी को स्वच्छ रखना आदि