________________
श्री संवेगरंगशाला
पूर्व के वैर से अति तीव्र क्रोध वाली बनी वह शेरनी सहसा उनके सामने दौड़ी, उसे आते देखकर महोसत्व वाले, अक्षुब्ध मन वाले मुनियों ने भी आनन्द से 'श्वापद का यह तीव्र उपसर्ग उपस्थित हुआ है' ऐसा मानकर सागर पच्यक्खान करके अदीन और धीर मन वाले, उन्होंने दोनों हाथ लम्बे कर नाक के अग्रभाग में दृष्टि जोड़कर मेरू के समान अचल जब काउस्सग्ग करके खड़े रहे, तब शेरनी ने आकर सुकौशल मुनि को शीघ्र पृथ्वी पर गिरा दिया और उसका भक्षण करना आरम्भ किया तब उस उपसर्ग को सम्यग् रूप से सहन करते उस महात्मा ने इस प्रकार चिन्तन किया कि-शारीरिक और मानसिक दुःखों से भरे हुए संसार में जीवों को उन दुःखों के साथ योग होना सुलभ है, अन्यथा इस संसार में पांच सौ साधु सहित खंधकाचार्य घानी में पिलाकर अत्यन्त पीड़ा से क्यों मर गये ? अथवा काउस्सग में रहे और तीन दण्ड के त्यागी दण्ड साधु का शीर्ष अति रुष्ट बने यवन राजा बिना कारण से क्यों छेदन करे? इसलिए इस भव समुद्र में आपदाएँ अति सुलभ ही हैं, परन्तु सैंकड़ों जन्मों के दुःखों को नाश करने वाला जैन धर्म ही दुर्लभ है। चिन्तामणी के समान, कामधेनु के समान और कल्पवृक्ष के समान वह वह दुर्लभ प्राप्ति वाला धर्म भी पुण्य के संयोग से महा मुश्किल से मुझे मिला है। इस प्रकार धर्म प्राप्ति होने से अनादि संसार में अतिचार रूप दोषों से रहित और सदाचरण रूप गुणों से श्रेष्ठ मेरा यह जन्म ही सफल है। केवल एक ही इस चिन्ता को दुःख रूप है कि जो मैं इस शेरनी के कर्म बन्धन में कारण रूप बना है। अतः जिन-जिन मुनियों ने अनुत्तर मोक्ष को प्राप्त किया है उनको मैं नमस्कार करता हूँ क्योंकि वे अन्य जीवों के कर्म बन्धन के कारण नहीं बने हैं। मैं अपनी आत्मा का शोक नहीं करता हूँ परन्तु कर्म से परतन्त्र श्री जिन वचन से रहित मिथ्यामति वाली दुःख समुद्र में पड़ी हुई यह शेरनी का शोक करता हूँ। ऐसा चिन्तन मनन करते उनका शरीर कर्ममल और उस जन्म का आयुण्य परस्पर स्पर्धा करते हों इस तरह तीनों एक साथ में ही सहसा क्षीण हो गये। इससे उत्तरोत्तर बढ़ते ध्यानरूपी अग्नि से सकल कर्मवन जल जाने से अंतकृत केवली होकर महा सत्ववान् सुकौशल राजर्षि ने एक समय में सिद्धि गति प्राप्त की, अथवा उत्तम प्राणिधान में एक बद्ध लक्ष्य वालों को क्या दुःसाध्य है ? भयानक बीमारी या महा संकट के समय साधु और गृहस्थ संबंधी कर्म का नाश करने वाली यह संक्षेप वाली विशेष आराधना को कहा है।
विस्तृत आराधना का स्वरूप :-और अति सुबद्ध सुन्दर नगर के समान विस्तृत आराधना के यह मूल चार द्वार हैं (१) परिकर्म विधि, (२) परगण में