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श्री संवेगरंगशाला
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किया और उसकी रानी सहदेवी ने उसे देखकर 'मेरे पुत्र को गलत समझाकर यह साधु न बना दे। ऐसा चिन्तन कर उसने कीर्तिधर महामुनि को सेवक द्वारा नगर से निकाल दिया, इससे 'अरे रे ! यह पापिनी अपने स्वामी का भी अपमान क्यों कर रही है ?' इस तरह अत्यन्त शोक से उसकी धायमाता गदगद् स्वर से रोने लगी, उस समय सुकौशल ने पूछा-माता जी ! आप क्यों रो रही हैं ? मुझे बतलाइये । उसने कहा-हे पुत्र ! यदि तुझे सुनने की इच्छा हो तो कहती हूँ-जिसकी कृपा से यह चतुरंग बल से शोभित राजलक्ष्मी को तूने प्राप्त की है वे प्रवर राजर्षि कीर्तिधर राजा चिरकाल के पश्चात् यहाँ आए हैं, उसे हे पुत्र ! तुरन्त वैरी के समान यह तेरी माता ने अभी ही नगर से बाहर निकाल दिया है। इस प्रकार का व्यवहार किसी हल्के कुल में भी नहीं दिखता है, जब तीन भवन में प्रशंसा पात्र तेरे कुल में यह एक आश्चर्य हुआ है । हे पुत्र ! अपने मालिक को इस प्रकार का पराभव देखकर भी अन्य कुछ भी करने में असमर्थ होने से मैं रोकर दुःख को दूर कर रही है। उसे सुन कर आश्चर्यचकित होते हुए सुकौशल राजा पिता को वन्दन करने के लिए उसी समय नगर के बाहर निकल गया, अन्यान्य जंगलों में स्थिर दृष्टि से देखते उसने एक वृक्ष के नीचे काउस्सग्ग ध्यान में कीर्तिधर मुनि को देखा, तब परम हर्ष आवेश से विकस्वर रोमांचित वाले वह सुकौशल अत्यन्त भक्तिपूर्वक पिता मुनि के चरणों में गिरा और कहने लगा कि-हे भगवन्त ! आपके प्रिय पुत्र को अग्नि से जलते घर में रखकर पिता को चले जाना क्या योग्य है ? कि जिससे हे पिताजी ! आप मुझे हमेशा जरा, मरण रूप अग्नि की भयंकर ज्वालाओं के समूह से जलते हुए इस संसार को छोड़कर दीक्षित हुए ? अभी भी हे तात् ! भयंकर संसार रूप कुएँ के विवर में गिरे हुए मुझे दीक्षा रूपी हाथ का सहारा देकर बचाओ, इस तरह उसका अत्यन्त निश्चल और संसार प्रति परम वैराग्य भाव देखकर कीर्तिधर मुनिराज ने उसे दीक्षा
दी।
सूकौशल को दीक्षित बने जानकर अति दुःखार्त बनी सहदेवी महल में से गिरकर मर गई और मोग्गिल नामक पर्वत में शेरनी रूप उत्पन्न हुई, इधर वे मुनिवर्य तप में निरतिचार संयम में उद्यम करते और दुःसह महापरोषहों रूपी शत्रुओं के साथ युद्ध में विजय द्वारा जय पताका को प्राप्त करते अप्रतिबद्ध विहार से विचरते उसी ही श्रेष्ठ पर्वत में पहुँचे, वहाँ उन्होंने वर्षाकाल प्रारम्भ किया, इससे पर्वत की गुफा के मध्य में स्वाध्याय ध्यान में दुर्बल शरीर वाले उन्होंने चातुर्मास रहकर शरदकाल में निकले, उन्हें जाते हुए देखकर