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एकसप्ततितमं पर्व
प्राप्ताश्च शान्तिनाथस्य भवनं मदमुद्वहत् । कुसुमाञ्जलिभिः साकं विमुञ्चन्तो जयस्वनम् ॥४२॥
तानि स्फटिकस्तम्भै रम्यदेशेषु केषुचित् । पुराणि दहशुयों म्नि स्थितानीव सुविस्मयाः ॥४३॥ इदं चित्रमिदं चित्रमिदमन्यन्महाद्भुतम् । इति ते दर्शयांचक्रः समवस्तु परस्परम् ॥४४॥ पूर्वमेव परित्यक्तवाहनोऽङ्गदसुन्दरः । श्लाधिताद्भुतजेनेन्द्रवास्तुयातपरिच्छदः ॥४५॥ ललाटोपरिविन्यस्तकरराजीवकुइमलः। कृतप्रदक्षिणः स्तोत्रमुखरं मुखमुद्वहन् ॥४६॥ अन्तरङ्ग तो बाह्यकक्षस्थापितसैन्यकः । बिलासिनीमनःक्षोभदक्षो विकसितेक्षणः ॥४७॥ सुप्तचित्रार्पितं पश्यन् चरितं जैनपुङ्गवम् । भावेन च नमस्कुर्वन्नाद्यमण्डपभित्तिषु ॥४।। धीरो भगवतः शान्तेर्विवेश परमालयम् । वन्दनां च विधानेन चकार पुरुसम्मदः ॥४६॥ तत्रेन्द्रनीलसङ्घातमयूखनिकरप्रभम् । सम्मुखं शान्तिनाथस्य स्वर्भानुमिव भास्वतः ॥५०॥ अपश्यञ्च दशास्यं स सामिपर्यङ्कसंस्थितम् । ध्यायन् विद्या समाधानी प्रवज्यां भरतो यथा ॥५१॥ जगाद चाधुना वार्ता का ते रावण कथ्यताम् । तत्ते करोमि यत् कतै ऋद्धोऽपि न यमः शमः ॥५२॥ कोऽयं प्रवर्तितो दम्भो जिनेन्द्राणां पुरस्त्यया । धिक् त्वां दुरितकर्माणं वृथा प्रारब्धसस्क्रियम् ॥५३॥ एवमुक्त्वोत्तरीयान्तदलेन तमताडयत् । कृत्वा कहकहाशब्दं विभ्रमी गर्वनिर्भरम् ॥५४॥ अग्रतोऽवस्थितान्यस्य पुष्पाण्यादाय तीव्रगी. । अताडयदधो वक्त्रे निभृतं प्रमदाजनम् ॥५५॥
तदनन्तर कुसुमाञ्जलियोंके साथ-साथ जय-जय ध्वनिको छोड़ते हुए वे सब हर्ष उत्पन्न करने वाले भी शान्ति-जिनालयमें पहुँचे ॥४२॥ वहाँ उन्होंने कितने ही सुन्दर प्रदेशों में स्फटिक मणिके खम्भों द्वारा धारण किये हुए नगर आश्चर्य चकित हो इस प्रकार देखे मानो आकाशमें ही स्थित हों ॥४६॥ यह आश्चर्य देखो, यह आश्चर्य देखो और यह सबसे बड़ा आश्चर्य देखो इस प्रकार वे सब परस्पर एक दूसरेको जिनालयकी उत्तम वस्तुएँ दिखला रहे थे ॥४४॥ अथानन्तर
वाहनका पहलेसे ही त्याग कर दिया था, जो मन्दिरके आश्चर्यकारी उपकरणोंकी प्रशंसा कर रहा था, जिसने हस्त रूपी कमलकी बोडियाँ ललाटपर धारण कर रक्खी थीं, जिसने प्रदक्षिणाएँ दी थीं, जो स्तोत्र पाठ से मुखर मुखको धारण कर रहा था, जिसने समस्त सैनिकोंको बाह्य कक्षमें ही खड़ा कर दिया था जो प्रमुख प्रमुख निकटके लोगोंसे घिरा था, जो विलासिनी जनोंका मन चञ्चल करने में समर्थ था, जिसके नेत्र-कमल खिल रहे थे जो आद्य मण्डपकी दीवालों पर मूक चित्रों द्वारा प्रस्तुत जिनेन्द्र भगवान्के चरितको देखता हुआ उन्हें भाव नमस्कार कर रहा था, अत्यन्त धीर था और विशाल आनन्दसे युक्त था, ऐसे अंगदकुमारने शान्तिनाथ भगवानके उत्तम जिनालयमें प्रवेश किया तथा विधिपूर्वक वन्दना की ॥४५-४६॥ तदनन्तर वहाँ उसने श्री शान्तिनाथ भगवान्के सम्मुख अर्धपर्यङ्कासन बैठे हुए रावणको देखा । वह रावण, इन्द्रनीलमणियोंके किरण-समूहके समान कान्ति वाला था और भगवान्के सामने ऐसा बैठा था मानो सूर्य के सामने राहु ही बैठा हो। वह एकाग्र चित्त हो विद्याका उस प्रकार ध्यान कर रहा था जिस प्रकार कि भरत दीक्षा लेनेका विचार करता रहता था ॥५०-५१॥
उसने रावणसे कहा कि रे रावण ! इस समय तेरा क्या हाल है ? सो कह । अब मैं तेरी वह दशा करता हूँ जिसे ऋद्ध हुआ यम भी करनेके लिए समर्थ नहीं है ॥५२॥ तूने जिनेन्द्रदेवके सामने यह क्या कपट फैला रक्खा है ? तुझ पापीको धिक्कार है। तूने व्यर्थ ही सक्रिया का प्रारम्भ किया है ॥५३॥ ऐसा कह कर उसने उसीके उत्तरीय वस्त्रके एक खण्डसे उसे पीटना शुरू किया तथा मुँह बना कर गर्वके साथ कहकहा शब्द किया अर्थात् जोरका अट्टहास किया ॥५४॥ वह रावणके सामने रखे हुए पुष्पोंको उठा कठोर शब्द करता हुआ नीचे स्थित स्त्री जनों
१. स्वप्न म ।
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