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एकादशोत्तरशतं पर्व
तृष्णा विषादहन्तृणां क्षणमप्यस्ति नो शमः । मूर्खोपकण्ठदत्ताङ् घ्रिर्मृत्युः कालमुदीक्षते ॥१४॥ अस्य दग्धशरीरस्य कृते चणविनाशिनः । हताशः कुरुते किं न जीवो विषयदासकः ॥१५॥ ज्ञात्वा जीवितमानाय्यं त्यक्त्वा सर्वपरिग्रहम् । स्वहिते वर्त्तते यो न स नश्यत्यकृतार्थकः ॥ १६ ॥ सहस्रेणापि शास्त्राणां किं येनात्मा न शाम्यति । तृप्तमेकपदेनाऽपि येनारमा शममश्नुते ॥ १७ ॥ कर्त्तुमिच्छति सद्धर्म न 'करोति 'यथाप्ययम् । दिवं यियासुर्विच्छिन्नपक्ष काक इव श्रमम् ॥१८॥
मुक्तो व्यवसायेन लभते चेत्समीहितम् । न लोके विरही कश्चिद्भवेदद्रविणोऽपि वा ॥ १६ ॥ अतिथिं द्वातं साधुं गुरुवाक्यं प्रतिक्रियाम् । प्रतीच्य सुकृतं चाशु नावसीदति मानवः ॥ २० ॥ आर्यागीतिः
नानाव्यापारशतैराकुलहृदयस्य दुःखिनः प्रतिदिवसम् ।
रत्नमिव करतलस्थं भ्रश्यत्यायुः प्रमादतः प्राणभृतः ||२१||
इत्यार्षे श्रीरविषेणाऽऽचार्यप्रोक्ते पद्मपुराणे 'भामण्डलपरलोकाभिगमनं मैकादशोत्तरशतं पर्व ॥ १११ ॥
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तथापि इतना दीर्घसूत्री था कि आत्म-कल्याण में स्थित नहीं हुआ ||१३|| तृष्णा और विषादको नष्ट करनेवाले मनुष्योंको क्षणभर के लिए भी शान्ति नहीं होती क्योंकि उनके मस्तक के समीप पैर रखनेवाला मृत्यु सदा अवसरकी प्रतीक्षा किया करता है ||१४|| क्षणभर में नष्ट हो जानेवाले इस अधम शरीर के लिए, विषयोंका दास हुआ यह नीच प्राणी क्या क्या नहीं करता है ? ॥१५॥ जो मनुष्य जीवनको भङगुर जान समस्त परिग्रहका त्यागकर आत्महितमें प्रवृत्ति नहीं करता है वह अकृतकृत्य दशा में ही नष्ट हो जाता है || १६ || उन हजार शास्त्रोंसे भी क्या प्रयोजन है जिससे आत्मा शान्त नहीं होती और वह एक पद भी बहुत है जिससे आत्मा शान्ति को प्राप्त हो जाता है || १७|| जिस प्रकार कटे पक्षका काक आकाशमें उड़ना तो चाहता पर वैसा श्रम नहीं करता उसी प्रकार यह जीव सद्धर्म करना तो चाहता है पर यह जैसा चाहिए वैसा श्रम नहीं करता || १८ || यदि उद्योगसे रहित मनुष्य इच्छानुकूल पदार्थको पाने लगें तो फिर संसार में कोई भी विरही अथवा दरिद्र नहीं होना चाहिए ||१६|| जो मनुष्य द्वारपर आये हुए अतिथि साधुको आहार आदि दान देता है तथा गुरुओंके वचन सुन तदनुकूल शीघ्र आचरण करता है वह कभी दुःखी नहीं होता ||२०|| गौतम स्वामी कहते हैं कि नाना प्रकार के सैकड़ों व्यापारों से जिसका हृदय आकुल हो रहा है तथा इसोके कारण जो प्रतिदिन दुःखका अनुभव करता रहता है ऐसे प्राणीको आयु हथेली पर रखे रत्नके समान नष्ट हो जाती है ॥२१॥
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, श्री रविषेणाचार्य विरचित पद्मपुराण में भामण्डलके परलोकगमनका वर्णन करनेवाला एक सौ ग्यारहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥ १११ ॥
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१. कर्णेति म० (१) २. तमप्ययम् म० । ३. पक्षः काक इव म० ।
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